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. नवमोध्यायः
समीचीन अनशन आदि नहीं कहे जा सकते हैं । बाह्य द्रव्योंको अपेक्षा रखना होनेसे ये अनशन आदि किये जाते हैं, अतः इनको बाहय तप माना गया हैं।
. दूसरी बात र ह भी है कि अन्य जनोंको अनशन आदिका घट, पट, के समान प्रत्यक्ष भी हो जाता है, तिस कारण से भो इनको बाह्यपना है।
___तीसरी बात यह भी है कि अन्यमतावलम्बी साधुओं करके और गृहस्थों करके भी अनशन आदि कतव्य कर लिये जाते हैं, इस कारण इनको बाहय तप कहा गया है। यह तप शद्व का निरूपण तो कर्मोंका निःशेष दाह कर देने से तपः है, इस तात्पर्य को ले रहा है । जिसप्रकार अग्नि तृण आदिवो जला देती है, उसी प्रकार तप भी कर्मों को तपाकर भस्म कर देता है, अथवा देह और इंद्रियोंको ताप करता है, इस कारण भी अनशन आदिको तप कह दिया जाता है।
___ यहां कोई तर्क उठाता है कि इस तपसे फिर किन कर्मोका संवर हो जायगा? बताओ ! ऐसी जिज्ञासा उपस्थित हो जानेपर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा समाधान वचन कहते हैं।
षोढा बाह्यं विनिर्दिष्टं तपोत्रानशनादि यत् ।
संवरस्तेन च ज्ञेयो शतपो हेतुकर्मणाम् ॥१॥
इस सूत्रमे अनशन, अवमौदर्य आदि जो छह प्रकारका बहिरंग तप विशेष रूपेण निर्दिष्ट किया गया है, उस करके अतपस्याको हेतु मानकर आने योग्य कर्मोंका संवर हो जाना समझ लेना चाहिये । अर्थात् जो तपस्या नहीं कर रहें है उनके कर्मोंका आस्रव हो रहा है तथा उस अतपके विपरोत जो अनशन आदि तपोंको कर रहे हैं उनके कर्मोंका संवर हो जाता है । यह युक्तिसिद्ध सिद्धांत है।
अथाभ्यन्तरं तपःप्रकाशयन्नाह;
बाहय तपोंका निरूपण करनेके अनम्तर अब सूत्रकार महाराज अभ्यन्तर तपोंका प्रकाश कराते हुए अग्रिम सूत्रको स्पष्ट कह रहे हैं। प्रायश्चित्त विनयौयावत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥
प्रायश्चित्त लेना, विनय करना, यावृत्त्य करना, स्वाध्याय करना, व्युत्सर्ग और ध्यान ये उत्तरवर्ती अन्तरंग तप है । प्रमाद से उत्पन्न हुए दोषोंका प्रत्यनीक प्रयोगों ' द्वारा परिहार कर देना प्रायश्चित्त है, पूज्य पदार्थोंमे आदर करना विनय है, शरीरक ।
चेष्टा या अन्य द्रव्य करके उपासना करना वैयावृत्त्य है, आलस्यको छोडकर समीचीन श्रुतज्ञान की भावना करना स्वाध्याय है, परपदार्थोमे आपापन और अपनेपन के संकल्प