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नवमोऽध्यायः
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प्रमादकृतानर्थप्रबंध विलोपे सम्यक्प्रतिक्रिया छंदोपस्थापना विकल्पनिवृत्तिर्वा । परिहारेण विशिष्टा शुद्धियस्मिन् ता रिहार विद्धिचारित्रम् । तत्पुनस्त्रिशद्वर्षजातस्य संवत्सर पृथक्त्वतीर्थं करपादमूलसेविनः प्रत्याख्याननामधेयपूवपारावारपारंगतस्य जन्तु नरोधप्रदुर्भाव वालपरिमाण जन्मयोनिदे द्रव्यस्वभाव विधानज्ञस्य प्रमादरहितस्य वा महावीयभ्य परमनि जंग्स्यातिदुष्करचर्या नुष्ठायिनः तिस्र संख्या वर्जयित्वा द्विगव्यूतिगामिनः संपद्यते नान्यस्य मनागपि तद्विपरीतस्येति प्रतिपत्तव्यं । प्रमाद या अज्ञान से किये गये अनर्थों की रचना द्वारा निर्दोष क्रियाओं का विलोप हो जाने पर भटिति समीचीन प्रतीकार कर स्वात्मामें व्यवस्थित हो जाना छेदोपस्थापना है अथवा पापपोषक विकल्पों की निवृत्ति हो जाना छेदोपस्थापना संयम हैं ।
प्राणियों की पीडा परित्याग से विशिष्ट हो रही आत्मशुद्धि जिस संयम में है वह परिहारविशुद्धि नामका चारित्र है, यह संयम लाखों करोड़ों मुनियो में किसी किसी को हो रहा अतीव विरल है, वह परिहारविशुद्धि फिर उस तपस्वीके होता है कि जो जन्म से तीस वर्ष पर्यन्त सुखी रहता है, पुनः दीक्षा ग्रहण कर तीर्थंकर के पादमूल में सात आठ वर्ष तक सेवा करते हुए पढ रहा स्न्ता प्रत्याख्यान नामक पूर्वस्वरूप समुद्र के पार को प्राप्त हो चुका है, जन्तुओं की उत्पत्ति का रुक जाना, प्राणियोंका उपजना किस कालमे कौनसे जीव पैदा होते हैं. उनका परिणाम क्या है ? जीवोंके जन्मस्थान, योनियां, देशव्यवस्था, द्रव्यों के स्वभाव इत्यादिक विधियों को जो भेदप्रभेद सहित जान रहा है, और जो प्रमाद से रहित है, जिसके महान् पराक्रम है, जिसके उत्तरोत्तर उत्कृष्ट निर्जरा हो रही हैं, अतीव कठिनता से करने योग्य चर्याको अनुष्ठान करनेकी जिसका टेव है, तीनों संध्याकालोंको छोड़कर दो कोस पर्यन्त गमन करनेवाला होय, उस हीं जीवके यह परिहारविशुद्धि संयम की सम्पत्ति प्राप्त होती है । उन उपर्युक्त लक्षणोंसे विपरीत अवस्थाको प्राप्त हो रहे किसी अन्य मुनिको अल्प भी परिहारविशुद्धि संयम प्राप्त नहीं होता है, इस प्रकार प्रतीति कर लेनो चाहिये । अतिसूक्ष्कषायत्वात् सूक्ष्मसांपरायं तस्य गुप्तिसमित्यो रंतर्भाव इति चेन्न तद्भावेपि गुणनिमित्तविशेषाश्रयणात् । लोभसंज्वलनाख्ययांपराय: सूक्ष्मोऽस्मिन् भबतीति विशेष आश्रितः । निरवशेषांत् क्षीरणमोह वात् यथाख्यातचारित्रं यथाख्यातमिति वा आत्मस्वभावाव्यतिक्रमे णाख्यातत्वात् इतेरुपादान ततः कर्मसमाप्तेर्ज्ञापनार्थत्वात् । यथाख्यात चारित्रसिद्धा सकलकर्मक्षय परिसमाप्तिः ।
पूर्वस्पर्धक, अपूर्वस्पर्धक, बादरकर्षणविधि अनुसार अत्यन्त सूक्ष्म कषाय हो जाने से दशमें गुणस्थान में जो चारित्र होता हैं, वह सूक्ष्मसां पराय है ।