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आचार्यने ऐसा कहा है- मूलग्रंथकारसे कहे हुए पदार्थ तथा उससे न कहे हुए पदार्थ इनका चिंतन तथा अन्य पदार्थोंका चिंतन जिनमे किया जाता है, चर्चा की जाती है ऐसे वाक्योंको वार्तिक कहते हैं। इन वार्तिकोंकी रचना करनेके पूर्व आचार्यने अन्तरङ्ग लक्ष्मी तथा बहिरङ्ग लक्ष्मीओंसे सतत वृद्धिको प्राप्त हुए श्रीवर्धमान तीर्थंकरका मनोयोग, वचनयोग तथा काययोगके द्वारा चिंतन किया । वे वर्धमान तीर्थंकर घाति संघात घातन थे अर्थात् उन्होंने ज्ञानावरणादि सैंतालीस कर्म प्रकृतियोंका समूल नाश किया था । वे वर्द्धमान तीर्थंकर पुनः कैसे थे ? " विद्यास्पदं" विद्यानंद वे अर्थात् मुझको “ आस्पदम्" आलम्बन शरण्य-रक्षक थे। गुरुजन ' अरे विद्या' ऐसे प्रिय इष्ट अर्धसंज्ञासे मुझे बुलाते थे और वह उनका विद्या शब्द प्रयोग विद्यानन्द आचार्यको बहुत प्रिय लगता था।
अब इसी आद्य पद्यका दूसरा अर्थ आगे लिखे हुए प्रकारसे आप जान लेवे
अहं घातिसंघात घातनम्-अन्योन्य का जन्मसे विरोध करनेवाले हरिण, सिंह, सर्प और गरुड, गाय और व्याघ्र आदि घातक प्राणियोमें जो जन्मसे ही वैर रहता है उसका अर्हत्पर मेष्ठीने नाश किया है ऐसे अर्हत्परमेष्ठिका मनमें चिंतन करके मैं ( विद्यानन्द आचार्य तत्त्वार्थके ऊपर श्लोकवार्तिक ग्रंथको कहूंगा। अर्थात् जैनागममें जो जीवादिक प्रमेयोंका वर्णन पूर्वाचार्योंने किया है उनको सिद्धि मैं दृष्टांत तथा हेतुपूर्वक दार्शनिक विद्वानोंके आगे करूंगा । जिनका मन में चिंतन किया जाता है वे अर्हत् कैसे हैं- " श्रीवर्धमान अवाप्योरुपसर्गयोः " इस सूत्रके नियमसे अब उपसर्गका अकार लुप्त हो जानेसे श्रीवर्द्धमान शब्द सिद्ध हुआ। श्रोवर्द्धमान इस शब्दका स्पष्टीकरण- ' श्रीयुक्तं अवसमन्तात् ऋद्ध प्रदीप्तं मानं केवलज्ञानं यस्य-बाह्यसमवसरणलक्ष्मीयुक्त तथा संपूर्ण द्रव्य, संपूर्णक्षेत्र, संपूर्ण काल और संपूर्ण भावोंमे प्रभु वर्धमान जिनेश्वरका केवलज्ञान प्रदीप्त हुआ है अतः महावीर प्रभु यथार्थ वर्धमान हैं ।
पुन: वे अहंत वर्धमान · विद्यास्पदं ' विशेषणसे युक्त हैं अर्थात् जाना गया जो संपूर्ण द्वादशांग वाङ्मय उसके अधिष्ठाता है । पुनरपि वे अहंत कैसे हैं ? तत्वार्थ श्लोकवार्तिकम् बुद्धीका विषय होनेता तथा वि--- धर्मका प्रकर्ष होनेसे अन्योन्यसे भिन्न ऐसे जो जीव अजोवादि पदार्थ है वे तत्त्वार्था हैं, तथा संपूर्ण वस्तुओं में जो मुख्य है, श्रेष्ठ है ऐसा जो शुद्ध आत्माका भाव वह ही आत्माका स्वाभाविक परिणाम है उसको उत्पन्न करनेवाला तथा पुण्यगुणका सवत्र कथन करनेवाला तथा शुद्ध आत्मस्वरूपरूपी जो यश उसको प्राप्ति करनेवाले चरित्र के वे अहंत रक्षक हैं। तथा वे अरिहंत दयामृत समुद्र हैं। तथा वे अहंतपरमेश्वर देवाधिदेव हैं । यथा यथाख्यात चारित्रकी उत्तरोत्तर शुद्ध परिणति होनेसे तेरहवे संयोग केवलि गुणस्थानमे तीर्थकरत्व का उचित महाप्रभावना करनेवाले कर्तव्योंको करनेवाले प्रभु परमश्रेष्ठ यशको प्राप्त करके प्रसिद्ध और अत्यंत शुद्ध अपने आत्मपदकी रक्षा करेंगे।
- अब इसी पद्य के तृतीय अर्थका चिंतन कैसा करना चाहिये इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैं । -