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तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
जिनेन्द्र भगवान् के सिद्धान्त अनुसार जोवस्थान, गुणस्थानों का गति, इन्द्रिय, आदि में ढूंढना स्वरूप धर्म बहुत अच्छा बखान दिया गया है, ऐसा श्रेष्ठ विचार करते रहना धर्मस्वाख्यातत्व अनुप्रेक्षा है ।
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गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम दर्शन लेश्या, भव्यत्व सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार इन चौदह परिणतियों में जीवों की मार्गणा की जाती हैं। यहाँ कोई व्याकरण शंका उठाता है कि " स्वाख्यातः इस पद में "युच् प्रत्यय हो जाने का प्रसंग है " यु" को अन होकर " स्वाख्यानम् " बनना चाहिये । ग्रन्थ - कार कहते हैं यह तो नहीं कहना । क्योंकि यहां " कुगतिः प्रादयः इस समास विधायक लक्षरण सूत्र अनुसार समास वृत्ति हो जाने से सु यानी सुन्दर होकर आख्यान कर दिया गया यों "स्वास्यात पद बना दिया है ।
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अनुप्रेक्षा इति भावसाधनत्वे बहुवचनविरोधः, कर्मसाधनत्वे सामानाधिकरण्याभाव इति चेन्न वा कृदभिहितस्य भावस्य द्रव्यवद्भावात्, सामानाधिकरण्य सिद्धेश्चोभयोः कर्मसाधनत्वात् । मध्येनु प्रेक्षावचन मुभयनिमित्तत्वात् । धर्मपरीषहजययोनिमित्तभूता ह्यनुप्रेक्षास्तन्मध्येऽभिधीयते । कुतस्ताः कथ्यंत इत्याहः -
चिन्तन करना ऐसी भावपरिणति अनुप्रेक्षा है और भाव में शयनं, पचनं, गमनं, आदि के समान एक वचन होता है । यहां अनुप्रेक्षा इस शब्द को भाव में प्रत्यय कर यदि साधा जायेगा तो अनुप्रेक्षाः इस बहुवचन पद के बहुवचन होने का विरोध पडेगा “ भावे एकत्वं नपुंसकत्वं च "। हाँ, यदि अनुप्रेक्षा शब्द को कर्म में प्रत्यय कर साधा जाय तो बहुवचन घटित हो जायगा । किन्तु अनित्यत्व, एकत्व, आस्रव, संवर आदिक भाववाची पदों के साथ अनुप्रेक्षणीय द्रव्य को वह रहे अनुप्रेक्षा शब्द के साथ समानअधिकरणवने का अभाव हो जायगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि कृदन्त प्रत्यय से कह दिया गया भाव तो द्रव्य के समान हो जाता है । जैसे कि " पच् " धातु से भाव में घञ् प्रत्यय करने पर भी पाकौ, पाका, ये द्विवचन बहुवचन के रूप चल जाते हैं । क्योंकि न्यारे न्यारे पचने योग्य पदार्थों का पाक भाव भी न्यारा न्यारा है । तिसी प्रकार अनुप्रेक्षा करने योग्य अनेक पदार्थों के भेद से अनुप्रेक्षा भाव भी भिन्न भिन्न हैं । अतः अनुप्रेक्षा यह बहुवचन कहना न्याय से प्राप्त है ।