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नवमोऽध्यायः
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द्रव्य, क्षेत्र, काल, आदि निमित्तों से आत्मा को अनेक अन्य भवों की प्राप्ति होते रहना इसका विस्तृत वितर्कण करना संसार अनुप्रेक्षा है।
जन्म लेना, बुढापा प्राप्त करना, मर जाना, पुनः जन्म लेना, बूढा हो जाना, मर जाना, ऐसी अनेक आवृत्तियों में यह जीव अकेला महान् दुःखों का अनुभव करता रहता है उस दुःखानुभव में कोई भी अपेक्षणीय स्वजन, परजन सहायक नहीं होता है अकेला हो जीव पुण्यपाप फलों को भोगता है अकेला हो मोक्ष को भी प्राप्त करता है किसी सहायक की अपेक्षा करना व्यर्थ है कोई सहायक हो भी नहीं सकता है ऐसो तर्कणा एकत्व अनुप्रेक्षा है।
आत्मा और शरीर के भिन्न भिन्न लक्षण होने के कारण शरीर से आत्मा का भेद विचारना और लक्षणों के भेद का परामर्श करना अन्यपन की अनुप्रेक्षा है।
शरीर के कारण हो रहे रज, वीर्य आदि अशुभ हैं, शरीर के कार्य मल, सूत्रादि भी अशुद्ध हैं इत्यादि प्रकारों करके अशुद्धपनेका विचार रखना अशुचित्व अनुप्रेक्षा है।
कर्मों के आस्रव होते रहने की चिन्ता करना आस्रवानुप्रेक्षा है, कर्मों के रुक जाने का सद्विचार करना संवरभावना है, कर्मों को निर्जरा का स्वरूप चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है।
कोई पण्डित यहां शंका करता है कि आस्रव, संवर और निर्जरा का स्वरूप कह दिया गया है अतः उनका यहाँ पुनः ग्रहण करना व्यर्थ है। आचार्य कहते हैं यह शंका तो ठीक नहीं है। कारण कि यहां उन तीनों का ग्रहण करना तो उनके गुण और दोषों के ढूंढने में तत्पर हो रहा है। आस्रव के दोषों का विचार करना चाहिये, संबर के गुणों की सदभावना करनी चाहिये, निर्जरा के गुण ओर दोषों की विवेचना करनी चाहिये ।
लोक की रचना लम्बाई, चौडाई आदि विधानों का तीसरे, चौथे अध्यायों में व्याख्यान किया जा चुका है।
रत्नत्रय स्वरूप सद्धर्मलाभ भेदविज्ञान, स्वानुभूति आदि के लाभ की बरे कष्ट से प्राप्ति होतो है यों विश्वास रखते हुये भेदज्ञान का दुर्लभपना चीतना बोधि दुर्लभपन भनुप्रेक्षा है।