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नवमोऽध्यायः
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अनित्याशरण तंसारकत्वान्यत्वाच्यासव संवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्म स्वाख्यातत्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः ॥ ७ ॥
अनित्यपन का विचार करना, कोईं के नहीं शरण होनेपन का चिन्तन करना, संसार का विचार करना, अकेलेपन का चिन्तन करना, शरीरादि से आत्मा के भिन्नपने का विचार करना, शरीरादि के अशुद्धपन का चिन्तन करना, आस्रव की चिन्ता करना, संवर की भावना भाना, निर्जरा तत्त्व की अनुप्रेक्षा करना, लोकरचना का चिन्तन करना, सम्यग्ज्ञान का दुर्लभपना भावना, श्रेष्ठधर्म के बढ़िया व्याख्यान हो चुकने को पुनः पुनः भावना करना कि श्री जिनेन्द्र भगवान् ने बहुत अच्छा कार्य किया, जो धर्म का व्याख्यान कर दिया, गुणस्थान, मार्गणाओं का निरूपण किया, यदि वे अन्तकृत् केवली के समान उपदेश दिये विना ही मोक्ष चले जाते तो हम क्या कर लेते, श्री अरहंत के उस बढ़िया धर्म - व्याख्यान से अनन्तानन्त जीव मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ऐसा धर्म + सु + आङ् + ख्या + क्त + त्व, धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा इस बारहमीं अनुप्रेक्षा का विशाल अर्थ है। एक अच्छी वंद्य - विद्या का उपदेश देनेवाला पण्डित कुछ काल के लिये कतिपय जीवों का उपकार कर देता हैं, उसकी प्रशंसा की जाती है तो फिर अनेक जन्म, जरा, मृत्यु, महारोगों पीडित हो रहे अनन्तानन्त प्राणियों को अक्षयअनन्तकाल तक नीरोग बना देने वाले जिनेन्द्र के निर्दोष धर्मोपदेश की महिमा का निरूपण करना तो अशक्यानुष्ठान ही हैं ।
इस प्रकार उक्त बारहों चिन्तन के पीछे चिन्तन पुनः चिन्तन यों भावनायें करना बारह अनुप्रेक्षायें हैं । एक बार हुये ज्ञान को चिन्तन या ध्यान नहीं कहते हैं । किन्तु वीसों, सैकडों ज्ञानों की उसी विषय में अंश तदंशों या तत्सम्बन्धी अन्य भी पदार्थों को ग्रहण कर रही लडी को भावना या ध्यान कहा जाता है। विशेष प्रकार के ज्ञानों को ही भावना मानना चाहिये ।
उपात्तानुपात्तद्रव्यसंयोगव्यभिचारस्वभावोऽनित्यत्वं
क्षुभितव्याघ्राभिद्रुतमृगशा
वक वज्जन्तोर्जरामृत्युरुजांत के परित्रारणाभावोऽशररणत्वं द्रव्यादिनिमित्तादात्मनो भवांतरा वाप्तिः संसारः, जन्मजरामरणावृत्तिमहादुःखानुभवनं प्रतिसहायानपेक्षत्वमेकत्वं, शरीरव्यतिरेको लक्षणभेदोन्यत्वं अशुभकारणत्वादिभिरशुचित्वं, आत्रवसंवरनिर्जराग्रहणमनर्थक मुक्तत्वादिति चेन्न तद्गुणदोषान्वेषण परत्वादिह तद्ग्रहणस्य | लोकसंस्थानादिविधिर्व्याख्यातः रत्नत्रय (स्व) भावादिलाभस्य कृच्छप्रतिपत्तिर्बोधिदुर्लभत्वं जीवस्थानगुणस्थानानां गत्यादिषु