________________
नवमोऽध्यायः
(१५५
शास्त्र से विरुद्ध पडता है। ग्रन्थकार कहते हैं यह तो न कहना । शब्दशास्त्र को अर्थतात्पर्य अनुसार चलना चाहिये। उत्तमक्षमा आदि सबके धर्मपने का अभेद हो जाना एक है अतः दशों उद्देश्यों में एक धर्मपने का विधान कर दिया है। एक बात यह भी है कि ब्रह्मचर्य शब्द अपने नपुंसक लिंग को पकडे हुये हैं और धर्म शब्द अपने पुल्लिग के आवेश में जकडा हुआ है । बहुव्रीहि समास के सिवाय ये अजहल्लिग माने गये शब्द अपने लिंग को कभी नहीं छोडते हैं। अतः वचन और लिंग का इस सूत्र में सामानाधिकर ण्य नहीं है। शब्दों के नियत लिंग भी किसी अर्थ की भित्ति पर अवलम्बित हैं। सिद्धान्तित अर्थ से शून्य हो रहे कोरे व्याकरण का कोई मूल्य नहीं है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि ये धर्म फिर किस किस संवर के कारण हो रहे हैं ? बताओ। ऐसी वुभुत्सा उपजने पर श्री विद्यानन्द आचार्य इंस अगली वातिक को कह रहे हैं।
तन्निमित्तास्रवध्वंसी यथायोगं स देशतः। संवरस्य भवेद्धतुरसंयतदृगादिषु ॥ २ ॥
उन क्रोध, मान, आदि निमित्तों द्वारा परिस्पन्द आत्मक योग अनुसार जो कर्म आने वाले थे, चौथे असंयत सम्यग्दृष्टि, पांचमे संयतासंयत, आदि गुणस्थानों में यथायोग्य पाले जा रहे वे धर्म उन कर्मों का एकदेश रूप से संवर कर देने के हेतु हो जाते है। सम्पूर्ण कर्मों का संवर तो चौदहवें गुणस्थान में है, वह सर्वदेश से संबर है। हाँ, चौथे आदि गुणस्थानों में कतिपय कर्मों का हो संवर हो रहा है अतः यह एकदेश संवर समझा जायगा।
क्रोधादिनिमित्तकास्रवध्वंसीन्युत्तमक्षमादीनि निश्चितानीति तत्स्वभावो धर्मस्तनिमित्तास्रवप्रध्वन्सी कथ्यते । स यथायोगं देशतः संवरस्य हेतुर्भवेदसंशयमेव असंयतसम्यग्दष्टयादिषु तत्संभवात् । तथाहि असंयतसम्म दृष्टौ तावदनंतानुबंधिक्रोधादिप्रतिपक्षभूताः क्षमावयः संभवत्येव । संयतासंयते वानंतानुबंध्यप्रत्याख्यानावरणक्रोधादिविपक्षाः, प्रमत्तसंयतादिषु सूक्ष्मसांपरायांतेषु पुनरनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणप्रतिबंधिनः, उपशांत. कषायादिषु समस्तक्रोधादिसपत्नाः संगच्छंते विरोधाभावात् । एवं संयमादयोपि प्रमत्तसंयतादिषु यथायोग संभवतः प्रतिपत्तव्याः। ते च स्वप्रतिपक्षहेतुकास्रबनिरोधनिबंधनत्वाद्देश संवरस्य हेतवः स्युः ।