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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
तपो वक्ष्यमारभेदं । परिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः । अभ्यंतरतपोविशेषोत्सर्गग्रहणात् सिद्धिरिति चेन्न, तस्यान्यार्थत्वात् । शौचवचनात्सिद्धिरिति चेन्न तत्रासत्यपि गर्धोत्पत्तेः दानं वा स्वयोग्यं त्यागः ।
कर्मों का क्षय करने के लिये जो तपा जाय वह तप है, निकट भविष्य में तप के बारह भेद कहे जाने वाले हैं । चेतन और अचेतन परिग्रहों की निवृत्ति कर देना त्यागधर्म है । यहाँ कोई शंका करता है कि छः प्रकार का अभ्यन्तर तप कहा जायगा उसमें उत्सर्ग एक तप का विशेष भेद हैं । उत्सर्ग या व्युत्सर्ग का अर्थ त्याग हो है । अतः उस उत्सर्ग का ग्रहण कर देने से ही इस त्यागधर्म का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है यहां धर्मों में त्याग नाम का प्रकार रखना व्यर्थ है । आचार्य महाराज कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योकि - तप में पड़े हुये उस उत्सर्ग का अन्य प्रयोजन है कुछ नियत काल तक सम्पूर्ण पदार्थों का त्याग कर देना उत्सर्ग का लक्षण है और काल का नियम नहीं कर शक्ति अनुसार जो दान किया जाय वह त्याग धर्म है । पुनः शंका उठाई जाती है कि शौचधर्म का कथन हो चुका है अतः शौच में अन्तर्भाव हो जाने से पुनः त्याग का प्रतिपादन व्यर्थ है । त्यागने में भी लोभ का त्याग है । शौच धर्म में भी लोभ का परित्याग किया जाता है । अतः शौचधर्म के कथन से ही त्याग के प्रयोजन की सिद्धि हो गयी ग्रन्थकार कहते हैं । कि यह भी कहना प्रशस्त नहीं हैं । कारण कि उस शौचधर्म में तो परिग्रहके नहीं होने पर भी लोलुपता उपज बैठती है । उस लोलुपता की निवृत्ति के लिये शौच कहा गया है । और यह त्याग तो फिर अपने निकट वर्त रहे पदार्थ का थोड़ा बहुत यथायोग्य परित्याग करना है अथवा संयमी को अपने योग्य ज्ञान, दीक्षा, धर्म वृद्धि, प्रायश्चित्त आदि का दान कर देना त्यागधर्म कहा जाता है ।
बमेदमित्यभिसंधिनिवृत्तिराषिचन्यं । अनुभूतांगना स्मरणकथाश्रवणस्त्रीसंशवतशयनासनादिवर्जनात् ब्रह्मचर्यं स्वातंत्र्यार्थं गुरौ ब्रह्मरिण चर्यमिति वा । अन्वर्थसंज्ञाप्रतिपादनार्थत्वाद्वाऽपौरुवत्यं । गुप्त्याद्यन्तर्भूतानामपि संवरधाररणसामर्थ्याद्धर्म इति संज्ञाया अन्वर्थताप्रतिपत्तेरन्यथानुपपत्तेरित्यर्थगतेः । तद्भावनाप्रवरणत्वाद्वा सप्तप्रकार प्रतिक्रमणवत्, सप्तप्रकारं हि प्रतिक्रमणमीर्यापथिकरात्रिदिवीय पाक्षिकचातुर्मासिक सांवत्सरिकोत्तमस्थानलक्षणत्वात् । तच्च गुप्त्यादिप्रतिष्ठापनार्थं यथा भाव्यते तथोत्तमक्षमादिदशविधधर्मोपि । ततस्तत्रांतर्भूतस्यापि पृथग्वचनं न्याय्यं । उत्तमविशेषणं दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थं । सर्वेषां स्वगुणप्रतिपक्षदोषभावनात्संवर हेतुत्वं । कथमित्याह -