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नवमोऽध्यायः
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ऐसे स्थान छोड़ देने चाहिये जहाँ कि स्त्रीजन और हत्यारे, चोरों, मदिरा पीने वाले, जुआरी तथा पक्षियों को मारने वाले, मांसविक्रेता, व्यभिचारी, आदिक पापीजनों का आवास होय तथा श्रृंगार को बढानेवालीं शालायें, इन्द्रियों में विकारों को उपजाने वाले घर, भूषणों के स्थान, उज्वल पहनावे के स्थल, वेश्याओं के अड्डे, खेलने के क्षेत्र, सुन्दर गायनप्रदेश, नृत्य, वादित्र (बाजे) आदि से आकुलित हो रहीं शालायें भी मुनि को छोड देनी चाहिये ऐसे स्थलों पर आत्मीय ध्यान करने में चित्त नहीं लग सकता है। हाँ, किसी जीव के नहीं बनाये हुये अकृत्रिम हो रहे ये पर्वतों को गुफायें, वृक्षों के कोटर (खोखले) शिलातल आदिक स्थान सेवने योग्य हैं, तथा मनुष्यों के बनाये हुये कृत्रिमस्थान तो सूने घर, झोंपडी, कोठी आदिक, और जो छोड दिये गये या छुडो दिये गये आवास (स्थल) अथवा जो अपने उद्देश से नहीं बनाये गये ऐसे वसतिका धर्मशाला आदिक प्रदेश तथा जिनमें कोई कृषी, वाणिज्य, विवाहविधि नहीं होती हो अधिक आरम्भ, प्रारम्भ नहीं रचा गया होय ऐसे स्थान मुनि को सेवने योग्य हैं। ऐसा लक्ष्य रखने से शयनासन में शुद्धि हो जाती है।
वाक्यशुद्धिः पृथिवीकायिकारंभादिप्रेरणरहिता परुषनिष्ठुरादिपरपीडाकरणप्रयोगनिरुत्सुका व्रतशोलदेशनादिप्रधानफला हितमितमधुरमनोहरा संयतयोग्या तदधिष्ठाना हि सर्वसंयत इति शुद्धयष्टकमुपदिष्टं भगवद्भिः संयमप्रतिपादनार्थ । ततो निरवद्यसंयमः स्यात् ।
मुनिमहाराज के वाक्यशुद्धि तो यों पलती है कि पृथिवीकायिक जीव, जलकायिक जीव आदि का आरम्भ करना, समारम्भ करना, आदि की प्रेरणा से रहित वचनप्रवृत्ति होनी चाहिये अर्थात् मट्टी को खोदो, यहाँ मट्टी भरो, इस सरोवर के पानी को सुखाओ, यहाँ नहर चलाओ, वन में आग लगाओ, ऐसे आरम्भ और हिंसा को बढाने वाले वचनों को मुनि नहीं बोलें, तथा दूसरों की पीड़ा को करने वाले कठोर, रूखे, निन्दाकारक, तिरस्कारक, आदिक वचनों का प्रयोग करने में उत्सुकता रहित मुनि होय । संयमी के उच्चारण का व्रतों का उपदेश, शीलों के धारने का आदेश, पापों के परित्याग का शिक्षण देना आदिक ही प्रधान फल होना चाहिये । सम्पूर्ण प्राणियों को हितस्वरूप, परिमित मीठे, मनोहर वचन कहना ही संयमी के योग्य है । उस वाक्यशद्धि का आधार पाकर हो लौकिक, पारलौकिक, सम्पूर्ण सम्पत्तियें प्राप्त हो जाती हैं। यों उस अपहृत संयम को समझाने के लिये भगवान् जिनेन्द्रदेव और आरातीय आचार्यों ने इस प्रकार आठ शुद्धियों का उपदेश किया है, उस से निर्दोष संयम पल जायगा।