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उन परिणतियोंका केवळ निमित मात्र सूचक कारण होता है । कारक कारण नहीं है । ऐसा मनीषी-तत्त्वजिज्ञासु लोकोको निर्णय करना चाहिये ।
___ तत्वार्थाधिगम शास्त्रके अन्तर्गत अतींद्रिय, सूक्ष्म-अत्यंत परोक्ष विषयोंका इनके श्लोकवार्तिक नामक महाग्रंथमे प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि
एक कार्यका दूसरे कार्यमे अत्यंताभाव, ( हेतुनिष्ठ-अत्यंताभाव ) ( अप्रतियोगिसाध्यसमानाधिकरण्य )- साधकतम कारणके साथ साध्य का निष्प्रतियोगी-निर्बाध-अविरुद्धसमाधिकरणता, ( अविनाभाव ). साध्यकी तरह अन्यापोहात्मक आदि अनेक दुर्लक्षणोंका निषेध कर अन्यथानुपपत्तिरुप लक्ष्यको अकित करनेवाले सम्यक् हेतुका युक्तिपुरस्सर अनुमान प्रमाण द्वारा प्रतिपादन किया है । प्रमाण संप्लव मानने वाले, ताथागत, मीमांसक, अक्षपाद, कापिल, सांख्य) इत्यादि अन्य प्रतिवादियोंके हृदयोंके हृदयों को हरण करनेवाली स्याद्वाद जिनवाणी द्वारा स्वामी विद्यानन्दने प्रतिपादन किया है।
___ जब दन्तोंका समह अपनी जिस शक्तीके द्वारा चनोंको चबाकर उनका जैसे चूर्ण करते हैं वैसे उसी शक्तिके द्वारा वह दन्तसमूह दूधमिश्रित अन्न भी खाते हैं । तब उनमे चनोंको चबानेवाली और पायसको खानेवाली एक शक्ति प्रगट होती है। उसी तरह चनकोंके कणोंमे भी असाधारण धर्मोसे युक्त नानारस, नानागंध, कठिनपना व्यक्त होता है और क्षीरानमे भी मृदुत्वकी तरतमता प्रकट होती है ।
उसी तरह विद्यानन्द आचार्य का यह अष्टसहस्री नामक ग्रंथकार्योमे जो नानापना दिखता है वह नानापना उत्पन्न करनेकी शक्तियां कारणोंमें होती है ऐसा वर्णन करता हैं ।
__अन्य मतोंके शास्त्र संसारसमुद्रके भंवरोंमे भ्रमण करनेवाले हैं और वे काचके समान हैं। और यह अष्टसहस्री ग्रंथ संसार समुद्र के भोवरोंमेंसे निकालनेवाला है और मानो कशापासमे चूडामणी विद्वानोंको अलंकारके समान हैं। अन्य मतोंके शास्त्र काचके टुकडोंके सम न हैं और यह अष्टसहस्री ग्रंथ चूडामणितुल्य है ।
यह अष्टसहस्री ग्रंथ विद्यानन्दरूप महासमद्रही है तथा विद्यानन्द आचार्यजीने इस ग्रंथ को प्रथम बनाया है। इस ग्रंथके वाक्य छोटे छोटे हैं तो मी इसकी वाक्य पंक्तियां विपुल प्रमेयों का निरूपण करनेवाली हैं । श्रीहर्ष वगैरह जो अन्य मतके विद्वान हैं उन्होंने खंडनखाद्य आदिक दर्शन शास्त्रोंकी रचना की हैं परन्तु वे शास्त्र अल्पसारयुक्त हैं और अतिशय कटु और कठोर शब्दसमूहसे भरे हुए हैं ।
अर्हत्परमेष्ठीके मुख से प्रकट हुआ जो द्वादशाम श्रुतज्ञानरूप वाङ्मय वह मानो गंभीर गुहा है । इस गुहामे जिनकी गणना करनेमे हम असमर्थ हैं ऐसे अनन्त प्रमेयरूप रत्न भरे हुए हैं । उनका स्वरूप जाननेकी जिनको इच्छा है तथा जो मुक्तिको जाननेवाले विद्वान हैं उनके लिये आचार्य विद्यानन्दी ये जिनवाणीका मानो जयजयकार ध्वनि करनेवाले नगारेके समान है ।