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आचार्य विद्यानंद स्वामीकी विद्वत्ताका परिचय.
आचार्य विद्यानन्द स्वामी संपूर्ण तार्किक विद्वानोंके समूहमे चूडामणी के समान थे । इनका सर्व शास्त्रों में स्वतन्त्र - अद्वितीय वाग्मित्व- वाक्पटुत्व था । सरस्वतीरूपी लतावेली के विस्तृत भूषावेष से विभूषित ऐसे न्यायशास्त्र - व्याकरणशास्त्र - सिद्धांतशास्त्र इन ग्रंथत्रयी विद्याको जाननेवाले विद्वानोंमे इनकी प्रज्ञाप्रभा सूर्यकी प्रभाके समान विशेष अतिशयको धारण करनेवाली त्रिलोकव्यापी प्रतापवान् थी, इस विषयमे परिपक्व प्रज्ञाके गरिमाको धारण करनेवाले तार्किक कोई भी विद्वानोंमे विवाद नहीं है ।
इनके द्वारा रचित अष्टसहस्री नामक सुलभकृति हजारों एकांतवादी दुर्जनों को निर्मद करनेवाली है। हजारों तत्त्वशंका के कष्ट - दुःखों को दूर कर समीचीन वस्तु तत्त्वोंका प्रतिष्ठापन करनेवाली है। हजारों तत्त्वभ्रष्ट लोगोको अपने चरणोंमे शरण लाकर नम्र किया है । इनकी सप्तभंगीका प्रतिपादन करने की पटुताकी विलक्षण प्रतिभा ज्ञानीजनोंके चित्चतन्यको चमत्कारक प्रतिभासित होती है ।
आजकल उनके द्वारा विरचित विद्यानन्द महोदय नामक ग्रंथराजमें उन्होंने कितने मेयप्रमेय सिद्धांत गुफित किये हैं यह हम नहीं जान सकते है । ऐसी किंचित् प्रमोद जनक तो चित् खेदजनक परिस्थिती उत्पन्न हुई है । उसको कौन रोक सकता है ?
इन्होंने स्याद्वाद वाणीकी दुंदुभिध्वनिको उद्घोषित कर गुरुपरंपरागत अकलंकदेवकी निष्कलंक - निर्दोष प्रक्रियाका अनुसरण कर अत्यंत रुक्ष विषयक न्यायशास्त्रका उद्धार किया है ।
इन्होंने लत्वार्थशास्त्रावतार से स्वामी अकलंकदेव रचित स्तुतिगोचर आप्तमीमांसा अलंकृतिके षड्दर्शनशास्त्र के संक्षिप्त लघुसिद्धांत गणनाको विस्तृत कर तीनसो त्रेसठ एकांतवादी मतोंका खंडनपूर्वक अनेकांत जिनशासनकी ध्वजापताका अन्य प्रवादी लोगोंके नभोमंडल मे फडकायी ।
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'वस्तुमे जो जो परिणमन कार्य होता है वह अपने अपने वस्तुस्वभाव-भेदके कारण होता है ( अन्य निमित्त के कारण नहीं ) ऐसा अन्य शास्त्रोंमें न पाये जानेवाला अत्यंत गूढ रहस्य सिद्धांत आचार्य विद्यानन्द स्वामीने स्पष्टतासे उद्योति किया । वह इस प्रकार है, जैसे किछोटासा बालक भी धनुष्यके लकडीको उसके मध्यभागमे मूठसे पकडकर उठा सकता है । उस धनुर्यष्टीकों कोई तरुण उसके अग्रभागको भी मुष्टीसे पकडकर उठा सकता हैं । कोई मल्ल उस धनुर्यष्टीको उसके केवल अग्रभागको केवल अपने एक अग्रमागके अंगुली के आधार पर लेकर उठा सकता है ।
उसी प्रकार धनुर्यष्टि स्थानीय जो वस्तुमे स्वाभाविक अपने वस्तुस्वमावके कारण परितियां होती है वे अपने अगुरुलघु नामक शक्तिके कारण अविभाग प्रतिच्छेदोंमे षट्स्थान पतित हानि - वृद्धि के कारण अपने अन्तरंग निमित्त के कारण ही होती है । बाह्य निमित्त कारण