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तत्वार्थ श्लोकवातिकालंकारे
तत्र गुप्तीनां तत्कारण विपक्षत्वं न तावदसिद्धं कर्मागमनकारणानां कायादियोगानां विरोधिन: स्वरूप निश्चयात् । तथा समित्यादोनां वाऽसमित्यादितत्कारणविरुद्धभावनया प्रतिपादनात् ।
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उन गुप्ति आदिकों में पहिले कहीं गयीं तं न गुप्तियों को उस आस्रव के कारणों का प्रतिपक्षीपना तो असिद्ध नहीं है, जब कि कर्मों के आगमन का कारण हो रहे काययोग, वचनयोग आदि का विरोधी रूप से गुप्तियों के स्वरूप का निश्चय हो रहा है, तिसी प्रकार समिति, धर्म आदि को भी उस आस्रव के कारण हो रहे स्वच्छन्दप्रवर्तन स्वरूप असमिति, अधर्मव्यवहार आदि कारणोंसे विरुद्धपनेकी भावना करके समझाया जाता है । यों तत्कारणविपक्षत्वहेतु को पुष्ट कर दिया है अनुप्रेभायें नहीं भावना या परीषहों को नहीं जीतना ऐसी कषायपरिणतिओं से आस्रव हो जाता है । इनके विरुद्ध अनुप्रेक्षाओं और परीषहुजय से नियमेन संवरण होगा ।
अथ धर्मेन्तर्भूतेन तपसा किं संवर एव क्रियते किं वान्यदपि किंचिदित्यारे कायामिदमाहः -
अव यहाँ कोई शंका उठाता है कि संचित कर्म जबतक नष्ट नहीं होय तब तक केवल संवर से तो मोक्ष नहीं हो सकती है। हाँ, उदय में आकर संचित कर्म भी नष्ट हो सकते हैं किन्तु उनके फलकाल में राग, द्वेष, संभव जाने के कारण पुनः कर्मों का बंध जाना अनिवार्य है । अविपाकनिर्जरा के विना निःश्रेयससिद्धि असंभव है । अतः दश धर्मों में अन्तर्भूत हो रहे सातवें धर्म माने गये तप करके क्या संवर हो किया जाता है ? अथवा क्या तपः करके अन्य भी कोई कार्य किया जा सकता है ? बताओ। इस प्रकार संशय उपस्थित होने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं ।
तपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥
तप से संवर तो होता ही है यों पूर्वसूत्र में कहा जा चुका है तथा तप से निर्जरा भी बढिया होती है ।
धर्मेन्तर्भावात् पृथग्ग्रहणमनर्थकमिति चेन्न । निर्जराकरणत्वख्यापनार्थत्वात् तपसः । प्रधानप्रतिपत्यर्थं च । संवरनिमित्तत्वसमुच्चयार्थश्चशब्दः । तपसोभ्युदयहेतुत्वानिर्जरांगत्वाभाव इति चेन्न, एकस्यानेककार्यारंभदर्शनात् । गुणप्रधानफलोपपत्तेर्वा कृषीवलबत् । केन हेतुना -