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अष्टमोऽध्यायः
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शरीर, जगत् आदि के स्वभावों का कई बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। संविदित या असंविदित क्षुधा, पिपासा, आदिक तीव्र वेदनाओं के उपजने पर कर्म की निर्जरा करने के लिये जो पूर्णरीत्या सही जाती हैं इस कारण वे परीषह हैं । उन परीषहों का जीतना यानी शान्तिपूर्वक तिरस्कार करना परीषहजय है " सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्राणि, मोक्षमार्गः " इस सूत्र की टीका में चारित्र शब्द के अर्थ का व्याख्यान किया जा चुका हैं । यहां किसी का आक्षेप है कि “ संद्रियते अनेन इति संवरः " यों करण में प्रत्यय करने पर संवरण कर रहे आत्मा के गुप्ति, समिति, आदि परिणामों करके संवर होता है, इस कारण गुप्ति आदिक करण हो संबर हैं तब तो वह संवर इन गुप्ति आदि करके होता है । यह प्रथमान्त और तृतीयान्त का भेदनिर्देश करना उचित नहीं है । संवर ही गुप्ति आदिक हैं या गुप्ति आदिक ही संवर हैं यों कहना चाहिये । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि यहां करण में अच् प्रत्यय नहीं है किन्तु संवरण हो जाना ही ( भाव ) यहां संवर अना गया है, आस्रव के निमित्त हो रहे कर्मों का संवरण कर देने से सास संवरण क्रिया के गुप्ति आदिक करण इस सूत्र में कह दिये हैं । इस सूत्र में सः यह जो कथन किया गया है वह गुप्ति आदि के साथ संवर का साक्षात् संबन्ध जोडने के लिये है अर्थात् गुप्ति आदिक से ही संवर होता है, अन्य तीर्थस्नान, शिरोमुण्डन, आदि से संवर नहीं हो पाता हैं ।
यह संवर होता है ।
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कुतो गुप्त्यादिभिर्गुप्त्यादय एव वा संवरः स्यादित्याहः -
यहाँ कोई तर्क उठाता है कि आपके पास क्या युक्ति है जिससे कि गुप्त्यादिकों करके अथवा गुप्ति आदिक हीं संवर सिद्ध हो सकेँ ? बताओ । इस प्रकार कटाक्ष प्रवर्तने पर ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिक को वह रहे हैं ।
स चाखवनिरोधः स्याद्गुप्त्यादिभिरुदीरितैः । तत्कारणविपक्षत्वात्तेषामिति विनिश्चयः ॥ १ ॥
अभी कहे जा चुके गुप्त्यादिकों करके ही आस्रव का निरोध हो रहा वह संवर हो सकेगा ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उस आस्रव के कारणों का विपक्षपना उन गुप्ति आदिकों के घटित हो रहा है (हेतु) इस प्रकार हेतु की साध्य के साथ बन रही व्याप्ति का विशेषतया निश्चय है, अविनाभावी हेतु से साध्य का बढ़िया निश्चय हो जाता है ।