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अथ नवमोऽध्यायः ।
संख्यातीतसहस्रयोजनमितस्वर्णादिरत्नस्फुरद्-। भण्डाराधिपतिः शचीपतिजगाद्यत्प्रातिहार्यं समुद् ।। मिथ्यात्वादिनिदानपञ्चकभवान् बन्धान्धकारान् क्षिपन् ।
सदरज्ञानचरित्ररत्नमहसा वीरः स नोव्यात्सदा ॥१॥
अब बंधपदार्थ का निरूपण कर चुकने पर सूत्रकार महाराज सम्वर और निर्जरातत्व की प्ररूपणा करने के लिये नौमे अध्याय का प्रारम्भ करते हैं। प्रथम ही संवरतत्व का लक्षण करते हुये सूत्र कह रहे हैं।
प्रास्रवनिरोधः संवरः॥१॥ ज्ञानावरण आदि कर्मों के आगमन का हेतु हो रहे आत्मीयप्रदेशपरिस्पन्दस्वरूप योग को आस्रव कहा गया हैं उस आस्रवका अथवा उस योग में विशिष्टताओं का सम्पादन करनेवाले प्रदोष, निन्हव, आदि का निरोध हो जाना संवर तत्व हैं।
कर्मागमननिमित्ताप्रादुर्भूतिरास्रवनिरोधः, तन्निरोधे सति तत्पूर्वकर्मादानाभाव: संवरः। तथा निर्देशः कर्तव्य इति चेन्न, कार्य कारणोपचारात् । निरुध्यतेऽनेन निरोध इति वा निरोधशब्दस्य करणसाधनत्वात् आस्रवनिरोधः संवर इत्युच्यते न पुनः कर्मादानाभावः स इति । योगविभागो वा आस्रवस्य निरोधः ततः संवर इति । एतदेवाह--