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अष्टमोऽध्यायः
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आठवें अध्याय का सारांश
बन्धतत्त्व का निरूपण करनेवाले इस आठवें अध्याय के प्रकरणों की संक्षेप 'सूचनिका यों है कि प्रथम ही मिथ्यादर्शन के दो भेद कर परोपदेशजन्य मिथ्यादर्शन के तीन सौ सठि भेद किये हैं । जिनोक्त परमागम को अनेक सिद्धान्तरत्नों का समुद्र बताया है । नित्यपक्ष या सर्वथा क्षणिकपक्ष में बन्ध मोक्षव्यवस्था नहीं बन सकती है, इसको युक्तियों से सिद्ध किया है, कर्मों का पौगलिकपना साधते हुये बन्ध के चार प्रकारों का व्याख्यान किया है | ज्ञानावरण आदि आठ मूलप्रकृतियों को अनुमान से साधकर उनके क्रमानुसार निरूपण का बीज समझा दिया है । किसी अपेक्षा से सत् हो रहे और कथंचित् असत् हो रहे मतिज्ञान आदि के ऊपर आवरण आ जाना बताया है । अभव्य के भी पिछले दो आवरणों की सिद्धि की है । आगमोक्त सभी उत्तर प्रकृतियों को युक्तियों से दृष्टान्तपूर्वक सिद्ध कर दिया है | दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुः कर्मों की उत्तरप्रकृतियों का व्याख्यान किया है जो कि राजवार्तिक महान् ग्रन्थ की वार्तिकों से प्रायः मिल जाता है । इसी प्रकार नाम, गोत्र, और अन्तराय की उत्तर प्रकृतियों का व्याख्यान है । दूसरे आन्हिक में स्थितिबन्धको कहते हुये द्वीन्द्रिय आदिक जीवों के बंध रहे कर्मों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियां समझाई हैं । अतीन्द्रिय स्थितिबंध और अनुभागबन्ध को साधने में अच्छी से अच्छी जो युक्तियां दी जा सकती हैं वे बताई हैं । फल का उपभोग हो चुकने पर भी कर्मों का क्षय हो नहीं पाता है इस मन्तव्य का निराकरण कर दिया है । प्रदेशबंध को कहते हुये स्कन्ध की सिद्धि कर दी है, कर्मबन्ध के अन्य भी भेद बतलाये हैं । पुण्यबन्ध और पापबंध को युक्तियों से पुष्ट किया है । आठवें अध्याय के अन्त में स्याद्वाद ढंग से प्रतिपादन किया हैं । वर्तमान में अनेक जीव पुण्य का किसी पुण्य में पाप का अनुबंध लगा रहता है एवं कतिपय पापों में भी पुण्य की गंध अनुप्रविष्ट हो रही है । यों देश की या पूर्वापर कालों की विवक्षा कर एवं आत्मीय भावों अनुसार पुण्य पापों में अनेक धर्मों को बताया हैं | सातवें अध्याय के अन्त में भी दान का व्याख्यान करते हुये ग्रन्थकार ने अनेकान्त की विलक्षण छटाओं का प्रदर्शन किया था । प्रकाण्ड न्यायशास्त्र के उद्भट पारदर्शी विद्वान् यदि ऐसा प्रयत्न न करें तो आधुनिक हठी दार्शनिकों का मद कैसे गलित होवे, किसी नीतिज्ञ ने ठीक कहा है कि:"नीरक्षीरविवेके हंसालस्यं त्वमेव तनुषे चेत्, विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलवतं पालयिष्यति कः ?” अतः ग्रभ्थकार का यह प्रयास अतीव प्रशंसास्पद है, सबको नतमस्तक होकर स्वीकार करना
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और अनेकान्त का अच्छे सम्पादन कर रहे हैं किसो