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कर दिये । पहिला दानी सेठ, दूसरा अभिमानो यशोवांच्छक धर्मरहित लौकिक कार्यों में द्रव्य व्यय करने वाला सेठ, तीसरा निर्धन, रोगी, धार्मिक आचरण करनेवाला मनुष्य, चौथा कुष्ठ रोगी भिकारो यों दृष्टान्तों द्वारा युक्तियों से पुण्य और पाप को अनेक धर्मविशिष्ट जातियों का परिज्ञान हो सकता है ।
अष्टमोऽध्यायः
यथार्थानुबंधी स्यान्न्यायाचरणपूर्वकः । तथानर्थोपि चभोधि समुत्तारादिरर्थकृत् ॥ ४ ॥
ग्रन्थकार इस ऊपरली कारिका को पुष्ट करने के लिये दृष्टान्त कहते हैं कि जिस प्रकार अर्थ यानी धन का उपार्जन करना कोई कोई भविष्य में अगले धन उपार्जन का अनुकूल होता है, न्यायपूर्वक आचरणों के साथ कमाया गया धन वर्तमान में आजीविका कराता ही है, साथ ही भविष्य में भी उस न्यायोचित व्यवहार करने वाले व्यापारी की बाजार में प्रतिष्ठा (चाक) जम जाती है जो कि आगे भी धनापार्जन का बोज हैं । तिसी प्रकार कोई कोई अनर्थ भी यानी अन्यायापार्जित द्रव्य भी भविष्य में धन उपार्जन करा देता है जैसे कि समुद्र में उतर जाना, वन की आजोविका करना, लोहे का कार्य करना इत्यादिक जघन्य व्यवसायों में भो धन कमा लिया जाता है। मोती निकालने के लिये समुद्र में घुसते हैं, द्वीन्द्रिय जीव माने गये हजारों सीपों की हत्या होतो है, धर्मकर्म सब छूट जाता हैं । अनेक धनिक व्यापारी कितने ही दिनों तक जहाज द्वारा समुद्र में प्रवास कर दूर देशान्तर में माल खरीदते हैं बेचते हैं बहुत से देशान्तरों में मांसभक्षण का प्रचार है, धार्मिक आयतन नहीं हैं, श्रावक के षट्कर्म पल नहीं सकते हैं अत एव कहीं-कहीं समुद्रयात्रा का निषेध भी लिखा हुआ पाया जाता है । समुद्र में इस पार से उस पार और उस पार से इस पार उतार देने की आजीविका भी प्रशस्त नहीं हैं । इसमें अनेक दोष छिपे हुये हैं, किन्तु इससे आर्थिकलाभ अधिक होता है । कितने ही पुरुष छिरिया भेड आदि को पालने, बेचने द्वारा आजीविका करते हैं उनको धनलाभ भी हो जाता है । उत्तम कुलवाले ऐसे निद्य व्यापारों को करें तो उन्हे धनप्राप्ति नहीं होती है, कतिपय विपत्तियां लग जाती हैं। जाकौ कारु ताही छाजे, गदहा पीठ मोंगरा बाजे यह किंवदन्ती बहुत दिनों से चरितार्थ हो रही है । इस वार्तिक में अर्थ को अर्थानुबन्धी और अनर्थ को भी अर्थानुबंधी साध दिया है । युक्तिपूर्वक अपेक्षाओं से दो भंग बन जाते हैं ।
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अन्यायाचरणायातस्तद्वदर्थोप्यनर्थकृत् ।
अनर्थोपीति निर्णीतमुदाहरणमञ्जसा ।। ५ ।।