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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
में तो पुण्य बंधता ही है साथ ही भविष्य में पुण्यवन्ध हो जाने की वासनायें आत्मा में जम जाती हैं जो कि संतानप्रतिसंतान रूप से पुण्यसंपादिका हैं। नीरोग अवस्था में उत्साह पूर्वक किया गया व्यायाम (कसरत) वर्तमान में शरीरस्कृति को उपजाता हैं किन्तु भविष्य के लिये भो उमंगों का उत्पादक बन जाता है । इसी प्रकार कतिपय पाप भी पिछले कालों में पाप को बांधने वाले माने गये हैं । मायाचार, धोकेबाजी, परस्त्रीलम्पटता, जुआ खेलना, आदि पापजन्य क्रियाओं से वर्तमान में तो पाप बंधता है साथ ही भविष्य में पापबन्ध की सन्तान का बीज उपज बैठता है । भूषणों के लोभ में आकर बच्चों की हत्या कर देने बाले हिंसक ठग भविष्य में भी अनेक पापों को करते रहते हैं। ये सब न्यारी-न्यारी जाति के पुण्यपाप हैं, कोई कोई पुण्य ऐसे होते हैं जो वर्तमान में पुण्य हैं किन्तु भविष्य में पाप के अनुकूल चलने वाले हैं जैसे कि किसी को धोका देकर उससे धन प्राप्त करने के लिये पूजन या दान करना अथवा मंत्रसंस्कार आदि विधियों को नहीं कराकर यश हडपने के लिये - मेला, प्रतिष्ठा, आदि उत्सव कराना, व्यसनी पुरुषों को रुपये, पैसे का दान करना, पूजन करते हुये जाप देते हुये इधर उधर आंख मारना ऐसी क्रियायें कुछ पुण्यवन्ध कराती हैं किन्तु भविष्य में पापबंध कराने के लिये भी अनुकूल पड जाती हैं। एवं कोई कोई पाप ऐसे हैं जो कि पुण्यबंध के अनुकूल बंध बैठते है। मुनिमहाराज या जैनधर्म की रक्षा के लिये मर जाना, मार देना, भविष्य में विम्बप्रतिष्ठा, विद्यालय आदि में द्रव्य लगा देने का अभिप्राय रखकर पापमय आजीविका कर बैठना, किसी की वस्तु को चुराकर परोपकारी कार्य में लगा देना, अन्य जीवों के उपकार का लक्ष्य कर प्रकृत जीवों को क्लेश पहुंचाना इत्यादिक क्रियायें पापसंपादक हो रहीं भी भविष्य में पुण्यबंध की ओर ले जाती हैं। जगत् में सम्पूर्ण पदार्थ अनेक धर्मात्मक हैं "पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य, सावद्य लेशो बहु पुण्यराशौ । दोषाय नालं करिणका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ" (श्रीसमन्तभद्राचार्य) जिन पूजक के महान् पुण्यबन्ध में अत्यल्प पापलेश मिला हुआ है। पापपूर्ण कमाई करके धन को धार्मिक कार्य में लगा देने वाले, अभिमानी पुरुष के पापपुञ्ज में पुण्य अंश भी मिल गया है। किसी किसी पुण्य में आधा पाप घुस बैठता है, किसी पाप में भी आधा पुण्य चिपक जाता है। ऐसे ही पहिले पुण्य पीछे भी पुण्य, और पहिले पाप पीछे भी पाप तथा पहिले पुण्य पीछे पाप, एवं पहिले पाप पीछे पुण्य इन चारों भंगों को भी दृष्टान्तपूर्वक समझ लेना चाहिये। एक सम्राट (बादशाह) ने चार प्रश्न किये कि यहां भी पुण्य वहां भी पुण्य, १, यहां पुण्य वहां (मरकर पीछे परलोकमें) पाप, २, यहां पाप वहां पुण्य, ३, यहां पाप वहां भी पाप ४, होय, इन चार प्रश्नों के उत्तर में चतुर मंत्री ने चार दृष्टान्त उपस्थित