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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
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अथानुभवबंध व्याचष्टे:
प्रकृतिबंध और स्थितिबंध की निरूपणा के अनन्तर सूत्रकार अब क्रमप्राप्त अनुभव बंध का अग्रिम सूत्र द्वारा व्याख्यान करते हैं--
विपोकोऽनुभवः ॥२१॥ ___ आये हुये कर्मों में तीव्र, मन्द, भावों अनुसार नानाप्रकार अनुग्रह या उपघात रूप विपाक पड जाना अनुभवबंध है । अर्थात् खाये हुये रोटी, दाल, दूध, भुसा, घास, आदि में शरीरप्रकृति अनुसार जैसे रस देने की शक्ति पड जाती है उसी प्रकार कर्मों में भी आत्मा को फल देने की सामर्थ्य पड जाती है। वस्तुतः इस अनुभव बंध द्वारा ही आत्मा अनेक आकुलताओं को प्राप्त हो रहा है।
विशिष्टः पाको नानाविधो वा विपाकः पूर्वास्रवतीवादिभावनिमित्तविशेषाश्रयत्वात् द्रव्यादिनिमित्तभेदेन विश्वरूपत्वाच्च सोनुभवः कथ्यते । शुभपरिणामानां प्रकर्षाच्छुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोनुभवः, अशुभपरिणामानां प्रकर्षात्तद्विपर्ययः ।
विपाक शब्द में वि उपसर्ग का अर्थ विशिष्ट या विविध प्रकार है । कर्मों में विशिष्ट हो रहा अथवा नाना प्रकार पड रहा जो पाक है वह विपाक हैं। पहले छठे अध्याय में कहे गये आस्रव के तीव्र भाव, मन्दभाव आदि विशेष निमित्तों का आश्रय पाने से कर्मों में विशिष्ट पाक हो जाता बताया है अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि भिन्न भिन्न निमित्तों करके सम्पूर्ण जगद्वर्ती अनेक रूप हो जाने से वह नाना प्रकार विधाक हो रहा अनुभव बन्ध कहा जाता है । जगत् में पण्डिताई, मूर्खता, निर्धनता, सुन्दरता, नीरोगजीवन, यशस्वी होना, स्त्री हो जाना, घोडा बन जाना आदि सभी विश्वरूप चमत्कार जो दीख रहा है वह सब कर्मों का विपाक है। दानकरना, पूजनकरना, दया करना, आदि शुभपरिणामों की प्रकर्षता से शुभ-पुण्य प्रकृतियों का प्रकृष्ट अनुभवबंध पडती है, और झूठ बोलना, हिंसा करना, धोखा देना, परनिन्दा करना आदि अशुभ कर्मों की बढवारी से उसका विपर्यय यानी अशुभपापप्रकृतियों का अनुभवबंध प्रकर्ष को लिये हुये पडता है। गोम्मटसार में भी " सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाग संकिलेसेण । विवरीदेण जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं" यही समझाया गया है ।
स किमुखेनात्मनः स्यादित्याहः