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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
संहार कर रहे ग्रन्थकार इन अग्रिम वार्तिकों को कहते हैं ।
शेषाणां कर्मणामंतमुहूंर्ता चेति कास्य॑तः । जघन्यमध्यमोत्कृष्टा स्थिति प्रतिपादितः ॥१॥ तया विशेषितबंधः कर्मभिः स्वयमाहृतः। स्थितिबंधोवबोद्धव्यस्तत्प्राधान्यविवक्षया ॥२॥ स्थित्या केवलया बंधस्तद्वच्छून्यैर्न युज्यते । तद्वदाश्रितया वस्ति भूमिभूधरयोरिव ॥३॥ स्थितिशून्यानि कर्माणि निरन्त्रयविनाशतः ।
प्रदीपादिवदित्येतस्थितेः सिद्धानि धार्यते ॥ ४॥
शेष पांच कर्मों की जघन्यस्थिति अन्त मुहूर्त है। यों उक्त सात सूत्रों द्वारा आठ कर्मों को परिपूर्ण रूप से जो जघन्ध, मध्यम, उत्कृष्ट स्थितियों का प्रतिपादन किया गया है उन स्थितियों से विशेषतया अनुरंजित हो रहे और स्वयं योगो द्वारा आहार प्राप्त हो रहे कर्मों के साथ आत्मा का स्थितिबंध हो रहा है। यहां प्रकरण में उस स्थिति के प्रधानपन की विवक्षा करके स्थितिबंध समझ लेना चाहिये। यों तो आस्रव और चारों बन्ध होने का एक ही समय हैं किन्तु कषायों के स्थितिबंधाध्यवसायस्थानों अनुसार कर्मों में स्थिति पड जाना समझा दिया गया है। जीव के योगों और कषायों अनुसार प्रकृतिबंध तथा स्थितिबंध साथ ही होते हैं केवल स्थिति के साथ ही बंध नहीं होता है और उसीके समान स्थिति से शन्य हो रहे कर्मों के साथ भी बंध होना युक्त नहीं हैं। हां, उस स्थिति वाले कर्मों के आश्रित हो रहो स्थिति के साथ बंध तो है जैसे कि भूमि यानो । थ्वी और भूमिधर पर्वत का आश्रयआश्रयीभाव है, भावार्थ-भूमि आश्रित है और पर्वत आधार है। यहां देखी जा रही भूमि के नीचे बहुत स्थानोंपर कंकड, पत्थर के पहाड मिलते हैं। भूमि को पहाड़ डाटे भी रहते हैं जिससे कि पायः भूकम्प नहीं हो पाता है । अथवा " न केवला प्रकृति प्रयोक्तव्या न केवलः प्रत्ययः" प्रकृतिरहित न केवल प्रत्यय बोला जाता है और प्रत्यय से रहित कोरी प्रेकृति भी नहीं बोली जा सकती हैं । उपचार से भले ही ट, पट, सु, औ, जस्, भ, पच्, तिप्, तस् आदि को बोल लो उसका कोई अर्थ नहीं समझा जाता है। उसी प्रकार कर्मों से रहित केवल स्थिति का या स्थिति से रीते केवल कर्मों का बंध होना उचित