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अष्टमोध्यायः
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जीव के नामगोत्रों को उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोष्टाकोटीसागरोपम बंधेगी। एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव के नाम-गोत्रों की जो उत्कृष्ट स्थिति है वही पल्योपम के असंख्यात में भाग परिमाण न्यून हो रही सन्ती एकेंद्रिय लब्धि अपर्याप्त के उत्कृष्ट रूप से पड जाती है। हाँ, द्विइन्द्रिय आदि पर्याप्त जीवों की जो उत्कृष्टस्थिति है वहो पल्य के संख्यातवें भाग प्रमाण काल मे न्यून हो रही सन्तो अपर्याप्त द्विइन्द्रिय आदि जीवों के बध्यमान नाम, गोत्रों की उत्कृष्टस्थिति पड़ जाती है।
कथं बाधवजितमेतत्सूत्रद्वयमित्याहः
यहाँ कोई तर्कशील छात्र आक्षेप करता है कि " सप्ततिर्मोहनीयस्य " " विंशतिमिगोत्रयोः" ये दोनों सूत्र बाधाओं से रहित हैं यह किस प्रकार निर्णीत कर लिया जाय ? आगमकथित अतीन्द्रिय सिद्धान्तों में बाधक प्रमाणों का असंभव दिखलाये विना प्रामाणिकता नहीं आती है । इस प्रकार आक्षेत्र प्रवर्तते हो झट श्रा विद्यानन्द स्वामी इस अगली वातिक . को समाधानार्थ कह रहे हैं।
सप्ततिर्मोहनीयस्य विशतिर्नामगोत्रयोः
इति सूत्रद्वयं बाधवर्जमेतेन वर्णितम् ॥ १॥
मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरकोटाकोटो सागर है । नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति वोस कोटाकोटो सागर है। इस प्रकार उक्त दोनों सूत्रों का वाच्यार्थ भला बाधक प्रमाणों से रहित है, इस बात का तो "आदितस्त्रिसरणां" इस दो वार्तिकों के कथन करके ही वर्णन कर दिया गया है। अर्थात् उक्त नियत स्थितियों से दूसरे प्रकार स्थिति को सिद्ध करने वाले प्रमाण का अभाव है। "असंभवद्बाधकत्वात्' अतीन्द्रियार्थसिद्धिः कर ली जाती है।
ततोन्यथा स्थितेहिकप्रमाणाभावेनैवेत्यर्थः ।
इस वार्तिक में पड़े हुये एतेन शब्द का अर्थ इस प्रकार हैं कि तिस सूत्रोक्त सिद्धान्त से अतिरिक्त अन्य प्रकारों से कमती, बढती, स्थिति के ग्राहकप्रमाणों का अभाव है, इस युक्ति करके उक्त दोनों सूत्रोंका रहस्य उपपन्न हो जाता हैं।
अथायुषः कोत्कृष्टा स्थितिरित्याहइसके अनन्तर आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति क्या है ? ऐसी जानने की इच्छा