________________
अष्टमोऽध्यायः
( ७८
अधिक प्रकर्षता से उन कर्मों के फल की तीस कोटाकोटी सागरोपम काल तक उपलब्धि होती हैं ( हेतुः ) दूसरे प्रकारों से इससे न्यून या अधिक उत्कृष्ट स्थिति मानने पर उत्कृष्टता करके तीसकोटाकोटी सागर तक फल हो नहीं सकता है अतः उस स्थिति का अभाव मानने में प्रमाण का अभाव हैं (अन्यथानुपपत्तिः) । यों यह युक्तियों से सिद्ध हो रही उत्कृष्टस्थिति भला किस प्रमाण करके बांधी जा सकती है ? अर्थात् बाधकप्रमाणों का असंभव होने सूत्रोक्त सिद्धान्त युक्त है ।
अथ मोहनीयस्य परां स्थितिमुपदर्शयन्नाहः
अव इसके अनन्तर क्रमप्राप्त मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का प्रदर्शन करा रहे सूत्रकार महाराज इस अगले सूत्र को कह रहे हैं ।
-
सप्ततिमहनीयस्य ॥ १५ ॥
चौथे मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तो सत्तर कोटाकोटी सागर प्रमाण है । सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिरित्यनुवर्तते । इयमपि परा स्थितिः संज्ञिपंचेंद्रियस्य पर्याप्तकस्य एक द्वित्रिचतुरिद्रियाणामेकपंचविंशति पंचाशच्छतसागरोपमानि यथासंख्यं तेषामेवापर्याप्तकानामेकेन्द्रियादीनां पल्योपमासंख्येयभागोना, सैव पर्याप्तासंज्ञिपंचेद्रियस्य सागरोपमसहस्रं तस्यैवापर्याप्तकस्य सागरोपमसहस्र पत्योपमसंख्येय भागोनं, संज्ञिनोपर्यातकस्यतिः सागरोपमकोटीकोटय इति परमागमार्थः ।
इस सूत्र का अर्थ करने में पूर्व सूत्र के "सागरोपमकोटी कोटयः " और " परा स्थितिः " इन पदों की अनुवृत्ति हो रही हैं । अतः उन पदों को जोड़कर सूत्र का अर्थ कर लिया जाय । मोहनीय कर्म की यह उत्कृष्ट स्थिति भी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव के ही बंध रहे मोहनीय कर्म में पडती है । हां, एकेन्द्रिय, द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीवों
तो बंध रहे मोहनीय कर्म में यथासंख्य रूप से एक, पच्चीस, पचास, सौ सागरोपम की पडेगी । और उन ही अपर्याप्तक हो रहे एकेन्द्रिय, द्विइन्द्रिय, आदि जीवों के तो पर्याप्त को एक, पच्चीस आदि सागर स्थिति में से पत्योपम के असंख्यात मे भाग और संख्यात में भाग कमती उत्कृष्टस्थिति पडेगी । वही मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव के हजार सागरोपम पडेगी । और उस ही असंज्ञी पंचेन्द्रिय के लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में मोहनीय कर्म की उत्कृष्टस्थिति हजार सागरोपम से पत्योपम के संख्यात में