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अष्टमोऽध्यायः
है। सूत्र में “ अन्तरायस्य च" यो क्रम का भेद कर कथन करना तो समान स्थिति की ज्ञप्ति कराने के लिये है अर्थात् क्रम का भेद कर अन्तराय कर्म की स्थिति का निरूपण करना तो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और वेदनीय कर्मों के समान अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति भो तोस कोटा-कोटो सागर की है, यों समझाने के लिये है। अन्तराय के अतिरिक्त अन्य कर्मों की उत्कृष्टस्थिति ज्ञानावरण आदि तीन कर्मों की उत्कृष्टस्थिति के समान नहीं है। उपमा प्रमाण की लवणसमुद्र अनुसार सागर नाम की संख्या का परिमारण कहा जा चुका है । त्रिलोकसार,राजवातिक आदि ग्रन्थोंमें सागरोपम संख्याको स्पष्टरूपसे कहा जा चुका है। यहाँ कोई शंका कर रहा है कि कोटी कोटी यों वीप्सा में दो होनेपर "कोटीकोटयौ" यों सूत्र में द्विवचन प्रयोग होना चाहिये !" कोटीकोटयः " ऐसा बहुवचन प्रयोग करना बन नहीं सकता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि " राजपुरुषः" के समान षष्ठीतत्पुरुष समास करते हुये “कोटीकोटयः" बन गया है अर्थात् राज्ञः पुरुषः, राजा का पुरुष है यहां जैसे संबंध विवक्षा करने पर षष्ठीतत्पुरुष समास किया गया है उसी प्रकार "कोटीनां कोटयः" यों षष्ठी समास कर लिया जाय, करोडों के करोड यानी करोड गुणा करोड यह अर्थ षष्ठीसमास करने पर ही लब्ध होता है इस प्रकार " कोटीकोटयः" शब्द व्याकरणमुद्रा से निर्दोष सिद्ध है।
पराभिधानं जघन्यस्थितिनिवृत्यर्थ । संज्ञिपंञ्चेंद्रियपर्याप्तकस्य परास्थितिः, अन्येषामागमात्संप्रत्ययः । तद्यथा एकेंद्रियस्य पर्याप्तकस्यैकसागरोपमा सप्तभागास्त्रयः,द्वींद्रियस्य पंचविशतिसागरोपमारणां सप्तभागास्त्रयः, त्रीन्द्रियस्य पंचाशत्सागरोपमाणां चतुरिंद्रियस्य सागरोपमशतस्य, असंज्ञिपंचेन्द्रियस्य सागरोपमसहस्रस्य, अपर्याप्तसंज्ञिपंचेन्द्रियस्यांतः सागरोपमकोटीकोटयः।एकद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियासंज्ञिनांत एव भागाः पल्योपमसंख्येयभागोना इति परमागमप्रवाहः।
इस सूत्र में उत्कृष्ट अर्थ को कहने वाले परा शब्द का ग्रहण करना तो जघन्यस्थिति की निवृत्ति के लिये है यानी यह उत्कृष्टस्थिति है जघन्यस्थिति नहीं है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव के ही उक्त चार कर्मों की यह उत्कृष्ट स्थिति पडती है, अन्य एकेन्द्रिय आदि जीवों करके बांधे जा रहे ज्ञानावरण आदि चार कर्मों की उत्कृष्टस्थिति का आगम से भले प्रकार निर्णय कर लिया जाय, उसी को ग्रन्थकार स्पष्ट करके इस प्रकार दिखला रहे हैं कि एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव के बांध रहे ज्ञानावरण आदि चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम के तीन बटे सात (3) भाग है, यानी एकसागर के सातभागों में तीन भाग प्रमाण है। दो इन्द्रियवाले पर्याप्त जीवों के बांध रहे ज्ञानावरणादि चार कर्मों की उत्कृष्ट