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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
अनन्तानन्त में भी अनन्तस्थान ऐसे हैं कि जिन संख्याओं को धारने वाला कोई अधिकारी नहीं है, तो भी उनसे बडा केवलज्ञान है । अतः अनेक स्थानों का उल्लंघन कर केवलज्ञान को कहना पड़ा। इसी प्रकार असंख्यातासंख्यात, मध्यम युक्तानन्त, आदि संख्याओं में से अनेक संख्याओं के अधिकारी कोई पदार्थ जगत् में नहीं है । इस भारतवर्ष में करीब पचपन करोड मनुष्य वसते हैं, एक पैसे से प्रारम्भ कर तीन चार अरबों रुपये तक के वे यथायोग्य अधिकारी हैं। भिकारी से लेकर महाराजा पर्यन्त सभी परिग्रहवान् मनुष्य इन में आ गये, पैसे से प्रारम्भ कर अरबों तक की मध्यवर्ती रुपये, आने, पैसों, की ऐसी भी करोडों संख्यायें हैं जिनका कि कोई स्वामी यहां विद्यमान नहीं है, दो एक पैसा, आना, रुपया, कमती बढती के स्वामी हैं। संख्या करने योग्य संख्याओं से संख्याओं की गिनती अत्यधिक है अतः संख्या के पंपूर्ण भेद विशेषों को झेलनेवाले सख्येयों का न मिलना आश्चर्यकर नहीं हैं। जैनसिद्धान्त में एक उपमाप्रमाण भी माना गया है उसके पल्य, सागर, सूची, आदि आठ भेद हैं। त्रिलोकसार ग्रन्थको “ रोमहदं छक्के सजलोस्सेगे पणुवीस समपात्ति, संपादं करिय हिदे केसेहिं सागरुप्पत्ती" इस गाथा अनुसार सागर नाम की संख्या उपज जाती है। अतः सूत्रकार ने उपमाप्रमाण का लक्ष्यकर सागरोपम शब्द कहा हैं। कोटी को कोटी से गुणा करने पर एक के उपर चौदह बिन्दवाली दशनील नामक संख्या एक कोटाकोटी की समझी जाय। एक बार में बांध लिया गया ज्ञानावरण कर्म का स्पर्धक आवाधा. काल के पश्चात् उदय में आ रहा संता क्रमसे तीस कोटाकोटी सागर काल में अवश्य निश्शेष हो जायगा। उसका एक परमाणु भी आत्मा के साथ बंधा नहीं रह जायगा, भले ही फल दिये विना ही कर्मों को खिरना पडे, स्थितिका उत्कर्षण भी अपनी नियत उत्कृष्ट स्थिति से अधिक नहीं हो सकता है।
आदित इति वचनं मध्यांतनिवृत्यर्थ, तिसृणामिति वचनमबधारणार्थ, अंतरायस्य चेति क्रममेदवचनं समानस्थितिप्रतिपत्त्यर्थं । उक्तपरिमारणं सागरोपमं । कोटोकोटय इति बहुत्वानुपपत्तिरिति चेन्न, राजपुरुषवत्तत्सिद्धेः । कोटीना कोटयः कोटीकोटय इति ।
सूत्र में आदि से यह जो वचन कहा गया है वह मध्य और अन्त का निवारण करने के लिये है, यानी मध्य की या अन्त की तीन प्रकृतियां नहीं पकड ली जाय इसके लिये "आदित" यह कहा गया है । तिस कारण आदि से ही प्रारम्भकर तीन प्रकृतियों का ग्रहण हो जाता है " तिसरणाम" यों तीन को कहनेवाला वचन तो नियम करने के लिये है, तिस कारण आदि से दो, चार, पाच, का ग्रहण नहीं हो पाता है तीन ही का ग्रहण करना अभीष्ट