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________________ श्लोक-बार्तिक विभाग होरहा है, यह प्रदेशों में विभाग गुण रह गया। इस प्रकार आकाश के प्रदेशों में संयोग और विभाग गुणों की प्रतीति होरही है। आकाश का एक प्रदेश और आकाश के दो प्रदेश, तीन प्रदेश, इत्यादि ढंग से प्रदेशों में संख्या गुण का भी भले प्रकार प्रत्यय होरहा है। यह आकाश का दूर-वर्ती प्रदेश परे है, और यह निकट-वर्ती प्रदेश अपर है, यों आकाश के प्रदेशों में परत्व और अपरत्व गुणों का परिज्ञान होरहा है । तथैव पटना-सम्बन्धी आकाश के इस प्रदेश से चित्रकूट, मथुरा, उज्जैन आदि के आकाशप्रदेश पृथक् हैं, इस प्रकार आकाश के प्रदेशों में पृथक्स्व गुण का उपलम्भ होरहा है। तथा घट-सम्बन्धी आकाश के प्रदेश से मन्दराचल-सम्बन्धी आकाश का प्रदेशस्थल महान् है, यों प्रदेशों में परिमाण गुणका अच्छा निर्णय होरहा है। इस ढंग से प्रदेशों में संयोग, विभाग, संख्या, परत्व, अपरत्व, पृथक्त्व, परिमाण, ये सात सामान्यगुण पाये जाते हैं । वैशेषिकों के यहां बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वष. प्रयत्न, धम, अधर्म, भावना, रूप, रस, गंध, स्पर्श, स्नेह, सांसिद्धिकद्रवत्व और शब्द, ये सोलह विशेष गुण हैं, और सख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, वेग और नैमित्तिकद्रवत्व ये दस सामान्यगुण हैं द्रवत्व और संस्कार के विशेषभेद दोनों ओर आगये हैं यों चौवीस गुणों की संख्या छब्बीस होगयी है। अतः गुणवान होने से आकाश के प्रदेश गुणस्वरूप नहीं होसकते हैं। प्रदेशिन्येवाकाशे संयोगादयो गुणा न प्रदेशेष्विति चेन्न, अवयव संयोगपूर्वकाव्य. संयोगोपगमाद्वि-तंतुकबीरणसंयोगवत् । पटारीनामाकाशप्रदेशसंगेगमं रेगकाशप्रदेशसंयोगोऽपरः एकवीरणस्यासिद्धः । सिद्धे तन्त्वेकसंयोगे द्वितंतुकसंयोगप्रसंगात मंगज योगा गावः । प्रदेशों और प्रदेशी के भेद को माननेवाले वैशेषिक कहते हैं कि प्रदेशों वाले आकाश में ही संयोग,विभाग, आदिक गुण हैं प्रदेशों में कोई गुण नहीं है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि अवयवों के संयोग-पूर्वक होरहा अवयवी का संयोग तुम्हारे यहाँ स्वीकर किया गया है, जैसे कि दसता और वीरण का संयोग है। अर्थात्-हस्त पुस्तक सयोग से शरीर पुस्तक संयोग जो हुआ है वह अवयव संयोग-पूर्वक अवयवी का संयोग वैशेषिकों के यहाँ माना गया है, तृण या डशीर से बने हये और तन्तुओं को स्वच्छ या विरल करने वाले साधन को वीरण ( ब्रश ) कहते हैं। एक तन्तु और वीरण के संयोग से हुआ दो दो तन्तुषों के साथ वीरण का संयोग संयोगज संयोग है। वैशेषिकों ने संयोग के एक कर्मजन्य, उभय कमजन्य और संयोगज--संयोग यों तीन भेद माने हैं, बाज पक्षी और पर्वत का संयोग अन्यतर कर्म-जन्य है। यहां एक बाज में क्रिया हुयी है, पर्वत में नहीं। लडने वाले दो मेंढानों का उभय-कर्मजन्य संयोग है । क्योंकि दोनों मेंढ़ानों में क्रिया होकर वह संयोग हुआ है, कपाल और वृक्ष के संयोग से घट और वृक्ष का संयोग तो संयोगजसंयोग है । यह अवयव के संयोग पूर्वक हा अववयी का संयोग है। पट आदिकों का प्राकाश के प्रदेशों के साथ संयोग होजाने विना प्रकाश प्रदेश में दूसरा संयोग प्रसिद्ध है । प्रदेशों के विना एकतन्तु और वीरण का संयोग भी प्रसिद्ध है, एक तन्तु के साथ संयोग सिद्ध होने पर दो तन्तुओं के साथ संयोग होने का प्रसंग है, अतः प्राय में संयोगजसंयोग का प्रभाव हुमा । भावार्थ-पाकाश के प्रदेशों में संयोग को नहीं मानने वाले वैशे
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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