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________________ पंचम-अध्याय प्रदेशी दोनों के प्रसत्वका प्रसंग पाया। भावार्थ-प्रदेशी द्रव्य का एक प्रदेश के साथ अभेद मानने पर “ द्रव्य " एक--प्रदेशवान् हुआजाता है, एक प्रदेश वाला द्रव्य तो परमाणु के समान प्रदेशी नहीं कहा जा सकता है, जब प्रदेशी कोई नहीं रहा तब प्रदेश भी कोई नहीं ठहर सकता है, यों दोनों का प्रभाव होजायगा, अतः एक आकाश और उसके अनन्त प्रदेशों का सर्वथा अभेद नहीं मान कर कथ:चित् अभेद स्वीकार करना चाहिये। __सर्वथा तद्भेदे पुनराकाशस्य च द्रव्यप्रदेशा द्रव्याणि वा स्युगुणादयो वा ? यदि द्रव्याणि तदाकाशस्यानेकद्रव्यत्वप्रसंगो घटादिवत् । तथा च सादिपर्यवसानत्वं तद्वदेव न ह्यनेकद्रव्यारब्धं द्रव्यं किंचिदनाद्यनंतं दृष्टमिष्टं वा परस्य । गुणाः प्रदेशा इति चेन्न, गुणांतराश्रयत्वविरोधात् साधारणगुणा हि सयोगविभागसंख्यादयस्तष्यते घटसंयोगोन्यस्याकाशप्रदेशस्य कुड्यसंयोगोन्यस्य करविभागोऽन्यस्य दंड विभागोन्यस्येति संयोगविभागयोः प्रतीतेः । एकः खस्य प्रदेशो द्वौ चेति संख्यायाः संप्रत्ययात् परो गगनप्रदेशोऽपरो वेति परस्वापरत्वयोरवबोधात् पृथगेतस्मात् पाटलिपुत्राकाशप्रदेशाचित्रकूटाद्याकाशप्रदेश इति पृथक्त्वस्योपलम्भात् तथाघटाकाशप्रदेशान्महान् मन्दराकाशप्रदेश इति परिमाणस्य सन्निर्णयात् । यदि फिर आकाश और उसके प्रदेशों का सर्वथा भेद माना जायगा तब तो बतानो वे आकाशद्रव्य के सर्वथा भिन्न पड़े हुये प्रदेश भला द्रव्यपदार्थ हैं ? अथवा क्या गुण, कर्म, सामान्य, आदि पदार्थ माने जायंगे? बतायो यदि वे अनेक प्रदेश द्रव्य रूप हैं, तब तो प्रकाश को अनेक-द्रव्यपन का प्रसंग आवेगा जैसे कि घट आदिक अनेक द्रव्य माने गये हैं, किन्तु वैशेषिकों ने आकाश को एक द्रव्य स्वीकार किया है " तत्त्वं भावेन " ।। २६ ।।" शब्दलिंगाविशेषाद्विशेषलिंगाभावाच्च " .३०॥ इन दो सूत्रों से आकाश का एकद्रव्यपना साधा गया है, आकाश के प्रदेशों को द्रव्य मानने पर आकाश अनन्त द्रव्य हुये जाते हैं, और तैसा होने पर उन घट आदिकों के ही समान आकाश को सादिपना और सान्तपना भी प्राप्त होजायगा अनेक द्रव्यों से प्रारम्भा जा चुका कोई भी द्रव्य अनादि और अनन्त नहीं देखा गया है। तथा उन दूसरे पण्डित वैशेषिकों के यहाँ अनेक द्रव्यों से बनाये गये घट, पट, आदि द्रव्यों का अनादि अनन्तपना इष्ट भी नहीं कियागया है। यदि उन प्रदेशों को द्रव्य नहीं मान कर गुणस्वरूप माना जाय तो यह भी ठीक नहीं पड़ेगा क्योंकि तब तो उन गुणस्वरूप प्रदेशों में अन्य गुणों के आश्रयपन का विरोध होजायगा, गुणों में दूसरे गुण नहीं रहा करते हैं " निर्गुणा: गुणा:" "गुणादिनिर्गुणक्रियः " ऐसा जैनों ने और वैशेषिकों ने स्वीकार किया है। जब कि आकाश-सम्बन्धी उन प्रदेशों में संयोग, विभाग, संख्या, आदि साधारण गुण वर्त रहे वैशेषिकों ने इष्ट किये हैं। ___ देखिये आकाश के अन्य प्रदेश का घट के साथ संयोग होरहा है, और आकाश के दूसरे ही अन्य प्रदेश का भींत के साथ संयोग होरहा है, यो प्रदेशों में संयोग गुण ठहर जाता है । तथा आकाश * के अन्य प्रदेशों का हाथ से विभाग होरहा है, और आकाश के दूसरे अन्य प्रदेश का दण्ड के साथ
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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