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________________ पंचम अ याय ेशा क्रिया तद्वान्स्वकीयाश्रय देशकः । प्रतीयते यदानन्यदेशत्वं कथमेतयोः ॥ ५७ ॥ ६६ यदि अभेद-वादी पण्डित यों कहैं कि शास्त्र युक्ति अनुसार सिद्ध हो रहे अनन्यदेशपन को हम हेतु इष्ट करते हैं । वायु और धूप में लौकिक देश की अपेक्षा भले ही अभिन्न देशपना हो किन्तु शास्त्र दृष्टि से वायु का देश न्यारा है और धूप का आश्रय होरहा देश न्यारा है, सम्पूर्ण अवयवी अपने अपने समवायिकारण हो रहे अवयवों में निवास करते हैं, बुरा अपने अवयवों में है और जल अपने अवयवों में प्राश्रित होरहा है, थतः कोई व्यभिचार दोष नहीं आता है । प्राचार्य कहते हैं कि शास्त्रीय अभिन्न देशपना यदि हेतु माना जा रहा है तब तो वह हेतु सिद्ध नहीं है अर्थात् पक्ष में नहीं वत्तने से अनन्यदेशत्व साधन प्रसिद्ध हेत्वाभास है क्योंकि उन दोनों क्रिया और क्रियावान् का भिन्नदेशवृत्तिपना प्रतीत होरहा है । देखिये क्रिया तो उस क्रियावाले देश (द्रव्य) के प्राश्रित होरही प्रतीत होती है और वह क्रियावान् पदार्थ तो अपने आश्रय-भूत पदार्थ में वतं रहा देखा जाता है । क्रिया दौड़ते हुये घोड़े में है और क्रियावान् घोड़ा तो समवाय सम्बन्ध से स्वकीय आधार होरहे अवयवों में या संयोगसम्बन्ध से भूमि देश में श्राश्रित होरहा है, जब ऐसी दशा है तो भला इन क्रिया और क्रियावान् का भिन्न देश में वृत्तिपना किस प्रकार बन सकता है ? अर्थात् नहीं। ऐसी दशा में तुम्हारा हेतु असिद्धहेत्वाभास है । 'अन्य देशौ ययो स्तावन्यदेशौ तयोर्भावः श्रन्य- देशत्वं' यों बहुव्रीहि समास करना | न्यायशास्त्र में बहुब्रीहि समास को अधिक स्थल मिलते हैं: " न कर्मधारयः स्यान्मत्वर्थीयो वहुव्रीहिश्चेदर्थप्रतिपत्तिकरः " । सर्वथानन्यदेशत्वमसिद्धं प्रतिवादिनः । कथंचिद्रादिनस्तत्स्याद्विरुद्ध चेष्टहानिकृत् ॥ ५८ ॥ धर्मिग्राहिप्रमाणेन वाधा पक्षस्य पूर्ववत् । साधनस्य च विज्ञेया तैरेवातीतकालता ॥ ५६ ॥ 1 क्रिया और क्रियावान् के प्रभेद को साधने वाले वादी ने अभिन्न देशपना हेतु दिया था उस पर हमारा यह प्रश्न है कि सवथा प्रभिन्नदेशपना यदि हेतु है ? तब तो प्रतिवादी होरहे जैनों के प्रति यह हेतु प्रसिद्ध है । जैन सिद्धान्त अनुसार क्रिया और क्रियावान् का अधिकरणभूत देश सर्वथा अभिन्न नहीं है । लकड़ी को छील रहे तक्षक ( बढ़ई ) की क्रिया का प्राधारभूत देश न्यारा है और क्रियावान् तक्षण का अधिकरण स्थान उससे भिन्न है । हाँ यदि कथंचित् प्रभिन्नदेशपना हेतु कहा जायगा तब ती वह वादी को विरुद्ध पड़ेगा कथंचित् प्रभिन्नदेशपना हेतु सर्वथा प्रभेद को नहीं साधता हुआ कथंचित् प्रभेद को साधेगा यों वह हेतु सर्वथा अभेद - वादी के इष्टसिद्धान्त की हानि को करने वाला हुआ । एक बात यह भी है कि धर्मी को ग्रहण करने वाले प्रमाण करके तुम्हारे पक्ष की बाधा उपस्थित होजाती है जैसे कि पूर्व में किया और क्रियावान का सर्वथा भेद मानने वाले को
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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