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श्लोक-वातिक
विरुद्धधर्मताध्यासादित्यादेरप्यहेतुता।
प्रोक्ततेन प्रपत्तव्या सर्वथाप्यविशेषतः ॥ ५३ ॥ यदि वैशेषिक दूसरे, ते सरे, प्रादि अनुमान यों उठावें कि क्रिया और क्रियावान् ( पक्ष ) सर्वथा भिन्न हैं ( साध्य ) विरुद्ध धर्मा से अधिरूढ़ होरहे होने से ( हेतु ) पुल और आत्मा के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । अथवा क्रिया और कियावान् भिन्न हैं विभिन्न-कर्तृक होने से १ या विभिन्नकालवर्ती होने से २ अथवा भिन्न भिन्न कार्यों के सम्पादक होने से ३ ( हेतु )। प्राचार्य कहते हैं कि इस ही से यानी-भिन्न प्रत्ययपन हेतु का विचार कर देने से विरुद्ध धर्माध्यास, भिन्नकर्तृ कत्व, भिन्न कार्यकारित्व प्रादिक हेतुत्रों का भी अस द्धतुपना बढ़िया कह दिया गया, भली भांति समझ लेना चाहिये क्योंकि उक्त हेतु से इन हेतुओं में सभी प्रकारों से कोई विशेषता नहीं है। अर्थात्--विभिन्न प्रत्ययत्व हेतु पर जैसा विचार चलाया गया है उसी विवार अनुसार विरुद्धधर्माध्यास ग्रादि हेतू भी प्रसिद्ध, विरुद्ध,-हेत्वाभास हैं और उन अनुमानों के दृष्टान्त भी साध्यविकल और साधन-विकल होजाते हैं, यो विभिन्नप्रत्ययत्व हेतु से इन हेतु प्रों का कोई अन्तर नहीं है।
क्रियाक्रियावतोनन्यानन्यदेशत्वतः क्रिया। तत्स्वरूपवदित्येके तदप्यज्ञानचेष्टितं ॥५४॥ लौकिकानन्यदेशत्वं हेतुश्चेद्वयभिचारिता ।
वातातपादिभिस्तस्यानन्यदेशैविभेदिभिः ॥ ५५ ॥ वैशेषिकों के पक्ष से प्रतिकूल सर्वथा अभेद-वादी कोई एक विद्वान् कह रहे हैं कि क्रियावान पदार्थ से क्रिया अभिन्न है ( प्रतिज्ञा ) दोनों का अभिन्न देश होने से ( हेतु ) क्रिया और उस क्रिया के स्वरूप समान ( अन्वयदृष्टान्त )। प्राचार्य कहते हैं कि कापिलों का वह कहना भी अज्ञान पूर्वक चेष्टा करना है। यहाँ अभेद--वादियों से हम स्याद्व दो पूछते हैं कि अभिन्नदेशपना हेतु यदि लोक में प्रसिद्ध होरहा अभिन्नदेश में वृत्तिपना माना जायगा तब तो वायु और धूप या शर्वत में घुल रहे बूरा और जल अथवा तिल और उसमें प्रविष्ट होरहे तैल आदि करके तुम्हारे उस हेतु को व्यभिचारि-हेत्वाभासपना प्राप्त होजायगा, देखो वे वात, आतप आदिक पूरे अभिन्न देश में वर्त रहे हैं किन्तु वे वात, आतप आदिक परस्पर में विशेष रूप से भिन्न हैं, अतः हेतु के रहजाने पर भी साध्य के नहीं ठहरने से व्यभिचार दोष हुआ।
शास्त्रीयानन्यदेशत्वं मन्यते साधनं याद। न सिद्धमन्यदेशत्वप्रतीतेरुभयोस्तयोः॥५६॥