________________
पंचम-अध्याय पुरुषस्तद्गुणो वापि न क्रियाकारणं तनौ । निष्क्रियत्वाद्यथा व्योमेत्युक्तिर्यात्मनि वाधकं ॥४२॥ नानैकांतिकता धर्मद्रव्येणास्य कथंचन ।
तस्या प्रेरकतासिद्धेः क्रियाया विग्रहादिषु ॥ ४३ ॥ सक्रिय जीव को क्रिया का हेतु मानने वाले जैनों के ऊपर कोई वाधा उठा रहे हैं कि आत्मा अथवा उसका प्रयत्न आदि गुण भी ( पक्ष) शरीर में क्रिया का कारण नहीं है ( साध्य) क्रियारहित होने से ( हेतु ) जैसे कि आकाश ( अन्वयदृष्टान्त )। प्राचार्य कहते हैं कि इस प्रकार जो आत्मा में क्रिया के कारणपन का वाधक कथन किया गया है वह हमारे सिद्धान्त का वाधक नहीं होसकता है क्योंकि अनुमान में पड़े हुये इस निष्क्रियत्व हेतु का धर्म द्रव्य करके व्यभिचार है । देखिये उस धर्म द्रव्य को शरीर आदि में क्रिया का किसी न किसी प्रकार उदासीनरूप से अप्रेरकहेतुपना सिद्ध है । दूसरी बात यह है कि निष्क्रियत्व हेतु भागासिद्ध भी है क्योंकि पुरुष के क्रियासहितपना साधा जा चुका है, गुण को तुम भले ही निष्क्रिय मानते रहो।
एवं सक्रियतासिद्धावात्मनो निर्वृतावपि । सक्रियत्वं प्रसक्तं चेदिष्टमूर्ध्वगतित्वतः ॥४४ यादृशो सशरीरस्य क्रिया मुक्तस्य तादृशी। न युक्ता तस्य मुक्तत्वविरोधात् कर्मसंगतेः ॥ ४५ ॥ क्रियानेकप्रकारा हि पुद्गलानामिवात्मनां ।
स्वपरप्रत्ययायत्तभेदा न व्यतिकीर्यते ॥ ४६॥. वैशेषिक आक्षेप करते हैं कि इस प्रकार आत्मा का क्रियासहितपना सिद्ध होजाने पर तो मोक्ष में भी आत्मा के क्रियासहितपन का प्रसंग पावेगा। यों कहने पर तो हम जैनों को कहना पड़ता है कि यह प्रसंग हमको अभीष्ट है, हम आत्मा का ऊर्ध्वगमन स्वभाव मानते हैं, आठ कर्मों का नाश तो मनुष्य लोक में ही होजाता है पुनः ऊर्ध्वग मनस्वभाव करके मुक्त जीव सिद्धलोक में विराजमान होजाते हैं। हां इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि स्थूल, सूक्ष्म, शरीरों से सहित होरहे संसारी जीव की जिस प्रकार की क्रिया है वैसी मुक्त जीव की क्रिया मानना समुचित नहीं है, नहीं तो उसके मुक्तपन का विरोध होजावेगा अर्थात्--प्रौदारिक, वैक्रियिक, शरीर-धारी जीव ऊपर, नीचे, तिरछे, चलते हैं, घूमते हैं, नाचते कूदते हैं, अथवा सूक्ष्मशरीर--धारी विग्रहगति के जीव भी ऋजुगति, पाणिमुक्ता, लांगलिका, गोमूत्रिका, गतियों जैसे जाते आते हैं, वैसे मुक्त जीव क्रिया को नहीं करते हैं । .