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श्लोक-वार्तिक
अब यहां किन्हीं दूसरे ही विद्वानों का प्रश्न है कि इस प्रकार प्रमाणों द्वारा धर्मं प्रादि द्रव्यों के क्रिया--रहितपन की भी व्यवस्था होचुकने पर फिर स्वयं जैनों को अभीष्ट हो रहीं उत्पत्ति, स्थिति, और व्यय स्वरूप क्रियायें उनमें नहीं हो सकेंगी और ऐसी दशा में सूत्रकार द्वारा किया गया तिस प्रकार उत्पाद, व्यय, धौव्यों से युक्त पदार्थ सत् है, यह द्रव्य का लक्षण उन धर्म आदिकों में घटित नहीं हो सकेगा. तिस कारण इन धर्म आदिकों का द्रव्यपना और वस्तुपना भी नहीं बन पाता है, अर्थात्-धर्म प्रादिकों में जब कोई क्रिया नहीं पायी जाती है तो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप क्रियाओं के भी प्रभाव हो जाने पर धर्म आदिक न तो द्रव्य और न वस्तु सघ सकेंगे, खर - विषारण के समान असत् हो जायंगे ।
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प्राचार्यं कहते हैं कि यह शंकाकार का कहना यों निराकृत होजाता है, कि सूत्रकार ने " निष्क्रियाणि च इस सूत्र द्वारा हलन चलन, कम्प आदि परिस्पन्द-स्वरूप क्रिया का धर्म श्रादिक द्रव्यों में प्रतिषेध किया है. शुद्ध धात्वर्थ- स्वरूप या अपरिस्पन्द - प्रात्मक उत्पाद प्रादि क्रियायें तो उनमें सिद्ध हैं, अन्यथा धर्म आदिकों के सत्पने की ही हानि होजायगी । उत्पाद, व्यय, आदिक क्रियायें परिस्पन्द-स्वरूप क्रिया को मूल कारण मान कर नहीं होती हैं। यदि हलन चलन, आदि क्रिया की भित्ति पर उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य माने जायंगे तो गुणों के रूप पीत आदि भेद प्रभेदों के उत्पाद आदि होने का विरोध हो जायगा । भावार्थ - वैशेषिकों ने द्रव्यों में ही उत्क्षेपण आदि परिस्पन्द स्वरूप क्रियायें मानी हैं । " गुणादिनिर्गुणक्रियः " गुरणों में क्रियायें नहीं रहती हैं, ऐसी दशा में क्रिया--रहित गुणों में तुम्हारे विचार अनुसार उपजना, नशना, ठहरना, बढ़ना, घटना, आदि क्रियायें नहीं हो सकेंगी।
यदि आप गुरण आदिकों में स्व और पर को कारण मान कर होरहे उत्पाद, व्यय और स्थिति को मानेंगे तो इसी प्रकार धर्म आदि द्रव्यों में उत्पाद, व्यय, स्थितियों को क्यों नहीं स्वीकार करलिया जाता है । भावार्थ- परिस्पन्द क्रिया के विना जैसे गुरण प्रादिकों में अनेक अपरिस्पन्दप्रात्मक क्रियायें होरहीं हैं, ज्ञान उपजता है, घटता है, बढता है, सुख ठहर रहा है, भावना दृढ़ होरही है आदि उसी प्रकार परिस्पन्द के विना भी धर्म आदि द्रव्यों में उत्पाद आदि क्रियायें सध जाती हैं । शुद्ध परमात्मायें, आकाशद्रव्य, कालायें, धर्म, अधर्म, इन द्रव्यों में हलन चलन, श्रादि के विना अनेक अपरिस्पन्द क्रियायें होरहीं हैं, षट्स्थान पतित हानि वृद्धियों के अनुसार अन्तरंग, वहिरंग कारण वश अनेक उत्पाद, व्यय, धन्य होते रहते हैं । अतः इनमें वस्तुपना, द्रव्यपना, वाल वाल रक्षित होरहा प्रक्षुण्ण है।
गतिस्थित्यवगाहानां परत्र न निबंधनं । धर्मादीनि क्रियाशून्यस्वभावत्वात्खपुष्पवत् ॥ १२ ॥