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पंचम-अध्याय यों काल को भी पक्ष कोटि में डालकर व्यापक सिद्ध कर रहे वैशेषिकों के पक्ष की अनुमान से वाधा दिखला दी जा चुकी थी, अब आगम से भी उस पक्ष की वाधा को प्रसिद्ध कर दिया है।
इसी कारण से काल को पक्ष कोटि से डालकर "द्रव्य होते हुये अमूतपन" यह हेतु वाधित हेत्वाभास हो जाता है क्योंकि काल द्रव्य अव्यापक ही व्यवस्थित हो रहा है पौर तैसा होनेपर प्रात्मा को परम महापरिणाम वाला (सर्वव्यापक) साध्य करने पर इस 'द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्व' हेतु का काल द्रव्य करके व्यभिचार सिद्ध हो जाता है, इस कारण इस द्रव्यत्वे सति अमूर्तत्वहेतु से प्रात्मा के उस सर्वगतपने की सिद्धि नहीं हो पाती है जिससे कि हम स्याद्वादियों का "अात्मा क्रियावान है क्रियाके हेतुभूत गुणों का धारने वाला होने से डेल के समान" यह अनुमान निर्दोष नहीं होता।
____ अर्थात्-जैनियों का अनुमान निर्दोष है क्योंकि हमारे पक्ष के ऊपर अनुमान प्रमाणों द्वारा वाधाओं का अवतार नहीं है और इसी ही कारण हमारा हेतु कालात्ययापदिष्ट नहीं है। अतः सूत्रकार ने यह बहुत अच्छा कहा था कि आकाश पर्यन्त द्रव्यों के क्रिया-रहितपन है तथा उस कथन करके परिशेष न्याय द्वारा विना कहे ही अन्य उक्त शब्दों की सामर्थ्य से जीव और पुद्गल द्रव्यों का क्रियासहितपना समझा दिया गया है और भविष्य ग्रन्थ में कहे जानेवाले काल द्रव्य को क्रिया-रहित पना भी निर्णीत कर दिया है जो कि सूत्रकार के अभिप्राय के अनुसार यह छटवां वात्तिक और उसका विवरण काल के निष्क्रियपन का प्रतिपादन कर रहा है।
नन्वेवं निःक्रियत्वेपि धर्मादीनां व्यवस्थिते। न स्युः स्वयमभिप्रेता जन्मस्थानव्ययक्रियाः ॥७॥ तथोत्पादव्ययप्रौव्ययुक्तं संदिति लक्षणं । तत्र न स्यात्ततो नैषां द्रव्यत्वं वस्तुतापि च ॥८॥ इत्यपास्तं परिस्पंदक्रियायाः प्रतिषेधनात् । उत्पादादिक्रियासिद्धेरन्यथा सत्त्वहानितः ॥६॥ परिस्पंदक्रियामूला नचोत्पादादयः क्रियाः। सर्वत्र गुणभेदानामुत्पादादिविरोधतः ॥ १० ॥ स्वपरप्रत्ययो जन्मव्ययौ यदि गुणादिषु। . स्थितिश्च किं न धर्मादिद्रव्येष्वेवमुपेयते ॥११॥