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पंचम-अध्याय
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हाँ सामान्य रूप से मात्र वायुसंयोग तो किसी भी द्रव्य में क्रिया का कारण नहीं माना गया है, देखिये अतीव मन्द वेगवाले वायु का संयोग होने पर भी कदाचित् वृक्ष आदि में क्रिया नहीं देखी जाती है अर्थात्-जीवनोपयोगी वायु सदा बहती ही रहती है कभी अर्द्धरात्रि के समय या वर्षा की आदि में अथवा अन्य अवसरों पर भी सर्वथा मन्द वायु चलती है, तब वृक्ष, दीपक, आदि पदार्थों में भी क्रिया देखने में नहीं पाती है, पुष्ट भींत या दृढ़ थम्भों को तो तीव्र वेग वाले वायु का संयोग भी हिला, डुला, नहीं सकता है, अतः आकाश करके "क्रिया-हेतु गुणत्व " हेतु का व्यभिचार दोष नहीं प्राता है।
___स्यान्मतं, न क्रियावानात्मा सर्वगतत्वादाकाशवदित्यनुमानवाधितः क्रियावान् पुरुष इति पक्षा, कालात्ययापदिष्टश्च हेतुरिति । तदसत्, पुरुषस्य सर्वगतत्वासिद्धः । सर्वगतः पुरुषो द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वाद्गगनवदिति चेन्न, परेषां कालद्रव्येण व्यभिचारात् साधनस्य । कालस्य पक्षीकरणाददोष इति चेन्न, पक्षस्यानुमानागमवाधानुषङ्गात् ।
वैशेषिकों का यों मन्तव्य भी होय कि प्रात्मा ( पक्ष ) क्रियावान् नहीं है ( साध्य ) सर्वत्र व्यापक होने से (हेतु ) आकाश के समान ( दृष्टान्त )। इस अनुमान से तुम जैनों का “ अात्मा क्रियावान् है " यह पक्ष वाधित होजाता है और " क्रियाहेतु-गुणत्वहेतु " कालात्ययापदिष्ट (वाधित हेत्वाभास ) होजाता है। प्राचार्य कहते हैं कि यह उनका कहना असत्य है प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि पुरुष के सर्वव्यापकपन की सिद्धि नहीं होसकी है अर्थात् सभी आत्मायें अपने अपने गृहीतशरीर बराबर मध्यम परिमाणवाले हैं। मुक्त आत्मायें चरम शरीर से किंचित् न्यून लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, को धार रहीं हैं केवल लोकपूरण अवस्थामें आत्मा तीन लोकमें व्याप जाती है । यदि वैशेषिक प्रात्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिये यों अनुमान उठा कि प्रात्मा ( पक्ष ) सर्वत्र फैल रहा व्यापक है : ( साध्य ) द्रव्य होते हुये अमूर्त होने से ( हेतु ) आकाश के समान ( दृष्टान्त )। ___यहाँ रूप आदि गुणों या क्रिया, सामान्य, आदि में व्यभिचार की निवृत्ति के लिये द्रव्यपन विशेषरण देना और पृथिवी आदि में व्यभिचार के निवारणार्थ अमूर्त्तत्व कहना सार्थक है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह अनुमान तो ठीक नहीं। क्योंकि दूसरे विद्वान् जैनों के यहाँ स्वीकार किये गये काल द्रव्य करके तुम्हारे हेतुका व्यभिचार दोष आता है। भावार्थ--वादी, प्रतिवादी, दोनोंको हेतु अभीष्ट होना चाहिये अन्यथा वह साध्य कोटि में धर दिया जाता है। सवारी का घोड़ा वह होना चाहिये जो स्वयं चलता हुअा अश्ववार को भी अभीष्ट स्थान पर ले पहुँचे किन्तु जो घोड़ी का निर्बल बच्चा ( बछेड़ा ) स्वयं सिर पर धरना पड़े वह गमक ( ले जाने वाला वाहन ) नहीं होसकता है । देखो काल बेचारा द्रव्य है और अमूर्त भी है किन्तु सर्वगत नहीं है । यदि वैशेषिक यों कहैं कि काल को भी हम पक्ष कोटि में कर लेंगे, वह भी व्यापक द्रव्य है, अतः कोई दोष नहीं आता है। प्राचार्य कहते हैं