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________________ પૂ लोक-वातिके माना गया हैं, अभी इसी सूत्र में धर्म द्रव्य को क्रियारहित साधा जा रहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह दोष उठाना ठीक नहीं क्योंकि उस धर्म द्रव्य को क्रिया की प्रेरणा करनेवाला हेतुभूत गुण के योगीपन की हानि है । अर्थात् क्रिया का प्रेरक कारण धर्म द्रव्य नहीं है, हां स्वयं गति स्वरूप परिगमन कर रहे जीव पुलों की गति - क्रिया का केवल सामान्य रूप से निमित्त कारण धर्म द्रव्य है, हेतु के शरीर में प्रेरकपना घुसा हुआ है, अतः व्यभिचार दोष नहीं आता है । क्रिया हेतुगुणत्वस्य हेतोः क्रियावच्त्वे साध्ये गगनेनानेकांत इत्ययुक्तं, तस्य क्रियाहेतुगुणायोगात् । वायुसंयोगः क्रियाहेतुरिति चेत्र, तस्य क्रियावति तृणादौ क्रिया हेतुत्वेन दर्शनात् । निष्क्रिये व्योमादौ तथात्वेनाप्रतीतेः । न च य एव तृणादौ वायुसंयोगः स एवाकाशेस्ति, प्रतिसंयोगि-संयोगस्य भेदात् वायुसंयोगसामान्यं तु न कचिदषि क्रियाकारणं, मंदतवेगवायुसंयोगे सत्यपि पादपादौ क्रियानुपलब्धेः । वैशेषिक जन व्यभिचार दोष उठाने के लिये पुनः अपनी घर-मानी प्रक्रिया अनुसार चेष्टा करते हैं कि क्रिया के हेतुभूत गुण से सहितपन हेतु का क्रियासहितपन साध्य करनेपर आकाश करके व्यभिचार होजायगा । प्राचार्य कहते हैं कि यह कहना प्रयुक्त है क्योंकि उस आकाश के क्रियाके हेतुभूत हो रहे गुण का योग नहीं है । यदि वैशेषिक यों कहैं कि आकाश और वायुका, संयोग नामका गुरण क्रिया का हेतु होरहा श्राकाश में विद्यमान है जैसे तृणवायुसंयोग तृण में क्रिया को कर देता है। संयोग दो आदि द्रव्यों में ठहरता है, चल रही वायु में जो ही संयोग है वही संयोग वहां के प्राकाश में विद्यमान है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वह वायु संयोग तो क्रियावान् मानेगये तिनके, पत्ता, शाखा, आदि में क्रिया करने के हेतुपने करके देखा गया है, क्रियारहित आकाश आदि में तिस प्रकार क्रिया के हेतुपने करके उस वायुसंयोग की प्रतीति नहीं होती है । दूसरी बात यह है कि जो ही वायु- संयोग तृरण आदि में क्रिया का हेतु है वहीं वायु-संयोग तो आकाशमें नहीं है, कारण कि प्रत्येक संयोगी द्रव्य की अपेक्षा संयोग भिन्न भिन्न हैं, घट और पट का संयोग होजाने पर घट का संयोग गुरण न्यारा है और पट का संयोग न्यारा है, दो द्रव्यों का एक गुण सा का नहीं होसकता है, अलीक है। हाँ सामान्य होने से दो गुरणों को एक गुण भले ही व्यवहार में कह दिया जाय, वैशेषिकों ने भी दो, तीन, आदि पदार्थों में प्रत्येक में न्यारी न्यारी द्वित्व, त्रिस्व, संख्या का समवाय सम्बन्ध से वर्तना स्वीकार किया है । पर्वत में अग्नि संयोगसम्बन्ध से रहती है, यहाँ प्रतियोगिता सम्बन्ध से अग्नि में संयोग रहता है और अनुयोगिता सम्बन्ध से पर्वत में संयोग रहता माना गया है, वस्तुतः ये संयोग दो होने चाहिये, अतः दो संयोगियों की अपेक्षा वायु संयोग उन में न्यारा न्यारा है ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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