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श्लोक-वार्तिक
नहि परकीयवित्तस्यातिसर्जनं दानं स्वस्यातिसर्ग इति वचनात् । स्वकीयं हि धनं स्वमिति प्रसिद्धं धनपर्यायवाचिनः स्वशब्दस्य तथैव प्रसिद्धेः । न चैवं स्वदुःखकारणं परदु:खनिमित्तं वा सर्वमाहारादिकं धनं भवतीति तस्याप्यतिसर्गो दानमिति प्रसज्यते, सामान्यतोऽनुग्रहा - र्थमिति वचनात् । स्वानुग्रहार्थस्य परानुग्रहार्थस्य च धनस्यातिसर्गो दानमिति व्यवस्थितेः । तेन च विशेषणेन स्वमांसादिदानं स्वापायकारणं परस्यावद्यनिबंधनं च प्रतिक्षिप्तमालक्ष्यते तस्य स्वपरयोः परमापकारहेतुत्वात् ॥
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दूसरे के धन दे देना तो दान नहीं है क्योंकि श्री उमास्वामी महाराज दान के लक्षण में अपने धन का परित्याग करना ऐसा कण्ठोक्त निरूपण किया है जब कि अपना उपात्त किया गया धन ही स्व है ऐसा लोक में प्रसिद्ध हो रहा है। चार अर्थों में से यहां धन के पर्यायवाची हो रहे स्व शब्द की तिस ही प्रकार यानी अपने धन स्वरूप से प्रसिद्धि हो रही है, स्व का भी धन ही होना चाहिये मांस, रक्त, प्राण, आदि नहीं । यों स्व शब्द की सफलता हुई। इस प्रकार कहने पर भी प्रसंग उठाया जा सकता है कि अपने दुःख के कारण हो रहे अथवा दूसरों के दुःख के निमित्त हो रहे सभी आहार, औषधि, आदि कभी धन हो जाते हैं इस कारण उन का भी परित्याग करना दान हो जाओ, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह प्रसंग नहीं उठाया जा सकता है क्योंकि सूत्रकार ने दान के लक्षण सामान्यरूप से अनुग्रहार्थ ऐसा कथन किया है अतः अपना अनुग्रह करना स्वरूप प्रयोजन को धारने वाले अथवा दूसरों का अनुग्रह होना स्वरूप प्रयोजन को धार रहे धन का संविभाग करना दान है ऐसी सूत्रानुसार व्यवस्था हो रही है । ति अनुग्रहार्थं विशेषण करके अपने अपाय का कारण हो रहा और पर के पापबंध का कारण हो रहा स्वकीय मांस आदि का दान करना तो निरस्त कर दिया गया समझ लिया जाता है । क्योंकि वह स्वकीय मांस आदि का देना तो अपने और दूसरों के परम अपकार करने का हेतु हो रहा कुतस्तस्य दानस्य विशेष इत्याह
है ।
सूत्रकार महाराज के प्रति कोई जिज्ञासु प्रश्न उठाता है कि उस दान की या उस दान के फल की किन कारणों से विशेषता हो जाती है ? अथवा दान में कोइ विशेषता ही नहीं है ? ऐसी पृच्छा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं ।
विधिद्रव्यदातुपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥ ३९ ॥
विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दाताविशेष और पात्रविशेष इन विशेषताओं से उस दान की विशेषता हो जाती है। दान के फल में भी अन्तर पड़ जाता है । अर्थात् श्रेष्ठ पात्र का प्रतिग्रह करना, ऊँचे आसन पर बैठाना, पाद प्रक्षालन करना, पूजन करना, नमस्कार करना अपने मन की शुद्धि करना, वचन शुद्धि का शुद्धि और भोजन, पान शुद्धि इत्यादि पुण्योपार्जन क्रिया विशेषों का ठीक ठीक क्रमविधान करना विधि कही जाती है । उस विधि की आदर अनादर अनुसार विशेषता हो जाती है। देय द्रव्य की विशेषता अनुसार द्रव्यविशेष व्यवस्थित है । जो द्रव्य मद्य, माँस, मधु के संसर्ग से रहित है, चर्म से छुआ हुआ नहीं है, पात्र के तपः, स्वाध्याय, निराकुलता, शुद्ध परिणतियां आदि की वृद्धि का कारण है वह द्रव्य विशेष विशिष्ट पुण्य का संपादक है अन्य प्रकारों के द्रव्य से वैसा पुण्य प्राप्त नहीं होता है । दाता भी शुद्ध आचरण का होय, पात्र में ईर्ष्या नहीं करे, दान देने में उत्साह रखता हो, शुभपरिणामी होय, दृष्टफलों की अपेक्षा नहीं रखता हो, श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलोलुपता, क्षमा और शक्ति इन सात गुणों को धार रहा हो ऐसा