SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 670
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तमोऽध्याय ६४९ सात शीलों में भी अतिथिसंविभाग शब्द करके दान कहा गया है उस दान का व्याख्यान करने के लिये प्रक्रम का आरम्भ करते हैं। अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३८॥ स्व यानी अपना अनुग्रह और पर अर्थात् दूसरों का अनुग्रह करने के लिये धन का त्याग करना दान है । भावार्थ-दाता का अपना अनुग्रह तो आत्मीय आनन्द के साथ पुण्यसंचय करना है और पात्र के सम्यग्ज्ञान, चारित्र, आरोग्य, शरीर शक्ति, आदि की वृद्धि करना है । यों दोनों प्रयोजनों का लक्ष्य रख जो सर्वांश ममत्व को छोड़ते हुये अपने धन का परित्याग कर देना है वह दान है। स्वपरोपकारोऽनुग्रहः, स्वशब्दो धनपर्यायवचनः । किमर्थोऽयं निर्देश इत्याह-- यहाँ सूत्र में कहे गये अनुग्रह शब्द का अर्थ अपना और पर का उपकार करना है । दान देने से अपने को स्वकर्तव्यपालन, पुण्यसंचय और दानान्तराय के क्षयोपशम अनुसार हुए आध्यात्मिक आनन्द विशेष की प्राप्ति होती है तथा पात्र को आहार, औषधि, आदि देने से उनके ज्ञान, चारित्र, शरीर की पुष्टि होकर इन से ज्ञानाभ्यास करना, उपवास करना, तीर्थ यात्रा करना, भावपूर्ण धर्मोपदेश करना, कायक्लेश कर सकना आदि सत्कर्म प्रवर्तते हैं, औषधि, वसतिका, पुस्तक, कमण्डलु, पिच्छिका, दे देने पर अथवा गृहस्थ पात्र को अन्य पदार्थों का भी स्व हस्त से दान करने पर धार्मिक कृत्यों की वृद्धि होती है। स्व शब्द के आत्मा, आत्मीय, ज्ञाति और धन ये चार अर्थ है किन्तु सूत्र में कहे गये स्व शब्द का पयोय वाची शब्द केवल स्वकीय धन ही लिया जाय, दान के प्रकरण में आत्मा या आत्मीय बन्धुजन अथवा अपने जातीय वर्ग के देने का तात्पर्य नहीं है। आहार, औषधि, पुस्तक, वसतिका, रुपया, गृह आदि धनों का ही मुनिमहाराज और गृहस्थ के लिये यथा योग्य दान दिया जाता है। पात्रदत्ति और करुणादत्ति में पुण्यवृद्धि के अर्थ अनेक धर्मादनपेत पदार्थों का दान किया जाता है । हाँ समदत्ति और अन्वयदत्ति में पुण्यवृद्धि गौण होकर यशस्यता, स्व कर्तव्य और कुटुम्ब रक्षा धार्मिक लौकिक कार्यों का परिपालन करना प्रधान फल हो जाता है। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि दान के लक्षण का यह कथन यहां किस लिये किया गया है ? बताओ। ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार वार्त्तिक द्वारा उत्तर को कहते हैं। स्वं धनं स्यात्परित्यागोऽतिसर्गस्तस्य नुः स्फुटः। तद्दानमिति निर्देशोऽतिप्रसंगनिवृत्तये ॥१॥ अनुग्रहार्थमित्येतद्विशेषणमुदीरित। तेन स्वमांसदानादि निषिद्ध परमापकृत् ॥२॥ स्व शब्द का अर्थ धन समझा जाय उस अपने धन का अतिसर्ग यानी स्फुट होकर जो परित्याग करना है वह दान हैं जो कि आत्मा का स्वकर्तव्य है । लक्षण के घटकावयव हो रहे पदों करके इतर व्यावृत्ति कर दी जाती है अतः अपने और पर के अपकार के लिये जो दिया जायेगा वह दान नहीं समझा जायेगा अथवा धन के अतिरिक्त जीवित रहने, शीर्ष आदि का त्याग करना कोई दान नहीं है। सूत्रकार महाराजमे "अनुग्रहार्थं स्वस्य” यों यह विशेषण कहा है उस करके अपने मांस का देना, शिर चढ़ा देना, पशुबलि करना, इत्यादिक दान करना, निषेधे जा चुके समझे जाय, क्योंकि ये अपने और दूसरे के बड़े भारी अपकारों को करने वाले हैं यह धन का दान भी नहीं है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy