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श्लोक - वार्तिक
च्यं, धाष्टयप्रायोऽसंबद्धबहुप्रलापित्वं मौखर्य, असमीक्ष्य प्रयोजनाधिक्येन करणं असमीक्ष्याधिकरणं, तत्त्रेधा, कायवाङ्मनोविषयभेदात् । यावतार्थेनोपभोगपरिभोगस्यार्थस्ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यं, उपभोगपरिभोगवतेऽन्तर्भावात्पौनरुक्त्यप्रसंग इति चेन्न तदर्थानवधारणात् ।
उदीरणा प्राप्त राग की अधिकता से प्रवृद्ध हंसी से मिला हुआ शिष्टबहिर्भूत वाक्यों का प्रयोग करना कंदर्प है । वे तीव्रराग प्रयुक्त हास्यवचन और अशिष्ट वचन यों दोनों ही दूसरे उपहासपात्र में यदि दुष्ट काय क्रिया से संयुक्त हो जांय तो हास्यवचन, अशिष्ट वचन और दषित काय चेष्टायें इन तीनों का मिश्रण परिणाम कौत्कुच्य कहा जाता है जैसे कि भांड़, विदूषक, किया करते हैं। जिसमें ढीठता बहुत पाई जाती है ऐसा पूर्वापर संबन्ध बिना अधिक बकबक करना मौखर्य है । विचारे बिना प्रयोजन नहीं होने पर भी अधिकता करके पदार्थों का निर्माण करा लेना असमीक्ष्याधिकरण है । काय गोचर, और वचन गोचर तथा मनोविषय, पदार्थों के भेद से वह असमीक्ष्याधिकरण तीन प्रकार है। मिथ्यादृष्टियों के काव्य, व्याकरण आदि का अनर्थक चिन्तन करना मनोगत है, और विना प्रयोजन परपीड़ा को करने वाला कुछ भी बकते रहना वाग्विषय असमीक्ष्याधिकरण है । तथा बिना प्रयोजन चलते बैठते हुये सचित्त अचित्त फल, फूलों को छेदना भेदना, भूमि खोदना, अग्नि देना, विष देना, आदि आरंभ सभी काय गोचर असमीक्ष्याधिकरण हैं। जितने पदार्थों से उपभोग, परिभोग, प्रयोजन सध जाता है उतने पदार्थ का संग्रह करना अर्थ समझा जाता है उससे अतिरिक्त अन्यपदार्थों का अनर्थक आधिक्य रखना उपभोग परिभोगानर्थक्य है । यहाँ कोई शंका उठाता है कि इस उपभोग परिभोग आनर्थक्य अतीचार के परिहार का लक्ष्य रख जब इसका उपभोग परिभोग परिमाण नाम के छठे शील में अंतर्भाव हो जाता है। तो यहां अतीचारों में निरूपण कर देने से पुनरुक्तपन दोष का प्रसंग आता है, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उस छठे व्रत के अर्थ का आप निर्णय नहीं कर पाये हैं। बात यह है कि उस छठे शील में अपनी इच्छा के वश से उपभोग परिभोग पदार्थों का परिमाण कर मर्यादा कर ली जाती है - किन्तु यहां फिर मर्यादा लिये हुये ही पदार्थों में पूर्णरीत्या अधिक रख देने का अभिप्राय है जैसे कि चार गाड़ियों के रखने की मर्यादा की थी किन्तु एक या दो गाड़ी से प्रयोजन सध जाता है फिर भी चारों गाडियों को व्यर्थ रक्खे रहना आनर्थक्य समझा जायेगा । विशेष यह है कि इन पांच अतीचारों में पहिले दो तो प्रमादचर्याविरति के अतीचार हैं और पापोपदेश विरति का अतीचार मौखर्य है । असमी - क्ष्याधिकरण हिंसोपकारी पदार्थ दान विरति का दोष हो सकता है । प्रमादचर्यात्याग से भी यह दोष संभव जाता है। पांचवां भी प्रमादचर्या का ही अंग है । यों ये पांच अतीचार तीसरे अनर्थदण्ड विरति शील हैं।
कस्मादिमे तृतीयशीलस्यातिचारा इत्याह
किस कारण से भला तीसरे अनर्थदण्डविरति शील के ये पांच अतीचार हो जाते हैं ? बताओ । “युक्त्यापन्नघटामुपैति तदहं दृष्ट्वापि न श्रद्दधे" जो युक्ति से घटित नहीं हो पाता है उसका प्रत्यक्ष देख कर भी मैं श्रद्धान नहीं करता हूँ । संभवतः द्विचन्द्रदर्शन के समान वह प्रत्यक्ष भ्रान्त हो गया हो "प्रत्यक्षपरिकलितमप्यर्थमनुमानेन बुभुत्सन्ते तर्करसिकाः, करिणि दृष्टेऽपि तं चीत्कारेणानुमिन्वतेऽनुमातारः” प्रत्यक्ष से भले प्रकार निर्णय किये जा चुके भी अर्थ को अनुमान प्रमाण करके जानने की अभिलाषा रखना तर्क रसिक प्रमाणसंप्लव वादियों की देव है । अच्छा तो अब ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार युक्ति पूर्ण अनुमानप्रमाण को प्रस्तुत करते हैं ।