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सप्तमोऽध्याय
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अभिप्रेत पदार्थ को प्राप्त कर लेना प्रेष्य प्रयोग है । व्यापार करने वाले पुरुषों का उद्देश्य लेकर खांसना, मठारना, हस्तसंकेत आदि करना, जिससे कि मर्यादा के बाहर देश में से इष्टसिद्धि हो सके वह शब्दानुपात है | मेरे तत्परताशाली रूप को देख कर शीघ्र ही बाहर देश से व्यापार संपादन हो सकता है, यों विचार कर शरीर को दिखलाना, झण्डी, ध्वजा, आदि दिखलाना रूपानुपात है । कर्मचारी पुरुषों का उद्देश लेकर बाहिर देश में डेल, पत्थर, चिट्ठी, टेलीग्राम आदि को फेंकना पुद्गलक्षेप है । ये देश विरमणशील के पाँच अतीचार हैं । यहाँ कोई तर्क उठाता है कि दसरे दिग्विरति शील के पाँच व्यतिक्रम भला किस युक्ति से सिद्ध हुये मान लिये जांय ? कोरे आगमवाक्य को मान लेने की तो इच्छा नहीं होती है इस प्रकार सविनय तर्क के उपस्थित होने पर ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्त्तिक को कहते हैं । द्वितीयस्य तु शीलस्य ते पञ्चानयनादयः । स्वदेश विरतेर्बाधा तैः संक्लेशविधानतः ॥ १ ॥
ये आनयन आदिक पांच तो ( पक्ष ) अपनी मर्यादा किये हुये देश के बाहर नहीं जाना स्वरूप दूसरे शील हो रहे देशविर तिव्रत को एकदेश बाधा पहुँचाते हैं ( साध्यदल ) क्योंकि नव ९ भंगों से देशविरतिजन्य विशुद्धि को धार रहे जीव के उन आनयन आदि क्रियाओं करके संक्लेश कर दिया जाता है ( हेतु ) । इस अनुमान करके पूर्व सूत्रोक्त आगमगम्य प्रमेय की सिद्धि कर दी जाती है । इस अनुमान में कहे गये साध्य के साथ हेतु की व्याप्ति तो स्वयं में या किसी सत्याणुव्रती में ग्रहण कर ली जाती है ! व्रत करके शुद्ध हो रही आत्मा में स्वल्पसंक्लेश करने वाले परिणाम उस व्रत के अतीचार समझे जाते हैं यहां भी पूर्ववत् व्रतशोधक और व्रतसंघातक परिणामों से न्यारे थोड़ी मलिनता के कारण हो रहे दोष अतीचार समझ लिये जांय ।
अथ तृतीयस्य शीलस्य केतीचारा इत्याह
इसके अनन्तर अब तीसरे अनर्थदण्डविरति व्रत के अतीचार भला कौन हैं ? ऐसी निर्णयेच्छा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस वक्ष्यमाण अग्रिम सूत्र को सुस्पष्ट कर रहे हैं ।
कंदर्प कौत्कुच्यमौखर्यासमीक्षाधिकररगोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥ ३२ ॥
राग की तीव्रता होने पर हँसी दिल्लगी के साथ मिला हुआ गुण्डे पुरुषों का सा अश्लील वचन प्रयोग करना कंदर्प है। तीव्र रागपरिणति और अशिष्ट वचन के साथ मिली हुई भौं मटकाना, कमर हिलाना, ओठ नचाना, हाथ पाँव फड़काना, अंगहार, आदि कायक्रिया करना कौत्कुच्य है। ढीठता से भरपूर होकर जो कुछ भी यद्वा तद्वा, अंट संट, व्यर्थ का बहुत वकवाद करना मौखर्य । जिसको सुनते हुये दूसरे मनुष्य उकता जावें, प्रयोजन साधकत्व का नहीं विचार कर चाहे जिन मन वचन काय गत विषयों की अधिकता करना असमीक्ष्याधिकरण है । जितने अर्थ से भोग, उपभोग सब सध सकते हैं उ अतिरिक्त अनर्थक पदार्थों को अधिक मूल्य देकर भी ग्रहण कर लेने की देव अनुसार संग्रह कर लेना उपभोग परिभोगानर्थक्य है । ये पांच अनर्थदण्डत्याग शील के अतीचार हैं ।
रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कंदर्पः, तदेवोभयं परत्र दुष्टकाय कर्मयुक्तं कौत्कु
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