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श्लोक - वार्तिक
कर रही हैं। उत्साह, इच्छा, वेग, पुरुषार्थ, शक्ति इन करके छाती में क्रिया होरही धीवरों की टांगों को ढकेलती जाती है अथवा कौर लीला जाता है यानी गटक लिया जाता है, यहाँ भी क्रियावान् ही आत्मा अपने हाथ, जवड़ा, गलकाक आदि शरीर के अवयवों में क्रिया का सम्पादक है, भले ही श्रात्मा की क्रिया स्वयं निष्क्रिय होरहे इच्छा, प्रयत्न, उत्साह आदि से होजाय । अतः विचारशील विद्वानों को यहाँ ग्रन्थकार के " अन्यत्र द्रव्ये क्रिया हेतुत्वात् इस हेतु का अन्तस्तल में श्रवगाह कर विचार कर लेना चाहिये ।
प्रयत्नादिगुणस्तद्वान्न हेतुरिति चेन्न वै ।
गुणोस्ति तद्वतो भिन्नः सर्वथेति निवेदितम् । ॥ ३॥
वैशेषिक कहते हैं कि आत्मा में, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्व ेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और भावना नामक संस्कार ये चौदह गुरण हैं तिन में से प्रयत्न आदि तीन गुण ही शरीर में क्रिया करने के हेतु हैं उन गुणोंवाला श्रात्मा तो शरीर में क्रिया करने का हेतु नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो कथमपि नहीं कहना क्योंकि उस गुणों वाले आत्मा से सर्वथा भिन्न हो रहा कोई गुण नहीं है, पूर्व प्रकरणों में हम इस बातका निर्णय कर चुके हैं । अर्थात् गुणी से गुण भिन्न नहीं है, जब ग्रात्मा के गुण शरीर में क्रिया के सम्पादक हैं तो उनसे अभिन्न होरहा आत्मा भी क्रिया का हेतु बन बैठा ।
नात्मा शरीरादौ क्रियाहेतुर्निर्गुणस्यापि मुक्तस्य तद्धेतुत्वप्रसंगात् ततोsसिद्धो हेतुः प्रयत्नो धर्मोऽधर्मश्चात्मनो गुणो हि तन्वामन्यत्र वा द्रव्ये क्रिया हेतुरिति परेषामाशयो न युक्तः, प्रयत्नस्य गुणत्वासिद्ध:, वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिकारणापादितो ह्यात्मप्रदेशपरिस्पंदः प्रयत्नो नः क्रियैवेति स्याद्वादिभिर्निवेदनात् । तथा धर्माधर्मयोरपि पुद्गल परिणामत्व समर्थनान्नात्मगुणत्वं ।
इस कारिका का विवरण यों है वैशेषिकों का यह अभिप्राय है कि शरीर आदि में क्रिया का कारण आत्मा नहीं है किन्तु गुण है यदि शरीर में क्रिया का कारण आत्मा को माना जायगा तो गुणों से रहितमुक्त श्रात्मा को भी उस क्रिया के हेतुपन का प्रसंग होजावेगा, तिस कारण जैनों का हेतु स्वरूपासिद्ध है "आत्मा क्रियावान् अन्यत्र द्रव्ये क्रिया हेतुत्वात्" यह हेतु पक्ष में नहीं वर्तता है ।
हाँ प्रयत्न धर्म और अधर्म ये आत्मा के तीन गुण ही शरीर में अथवा अन्य वस्त्र, भूषण, ठेला.
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सूक्ष्म शरीर आदि द्रव्यों में क्रिया के हेतु हैं । इस प्रकार दूसरे वैशेषिकों का यह श्राशय है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह उनका अभिप्राय समुचित नहीं है, क्योंकि प्रयत्न को गुणपना प्रसिद्ध है, वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम इच्छा, मादि कारणों करके सम्पादित किया गया आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्द