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पंचम अध्याय
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are व्यभिचारः । कालो हि क्रियापरिणामिनां स्वयं निमित्तमात्रं स्थविरगतौ यष्ठिवत्, पुनः कियानिर्वर्तकः पर्णादौ पवनवत् ।
यदि यहाँ कोई यों दूषरण उठावे कि काल तो सम्पूर्ण गति आदि परिणतियों का कारण होरहा निष्क्रिय माना गया है अतः काल करके व्यभिचार होजाने से जैनों का अन्यत्र द्रव्ये क्रियाहेतुत्व नामका हेतु अपने सक्रियत्व साध्य का ज्ञापक नहीं है, प्राचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि काल को क्रिया का प्रेरकहेतुपना नहीं है क्रिया का प्रेरक होकर सम्पादन करा देना यहाँ क्रिया हेतुत्व, साधन का अर्थ है किन्तु फिर क्रिया का केवल उदासीन निमित्तकारणपना क्रियाहेतुत्व नहीं है, अतः क्रियाके उस प्रेरक निमित्तपन हेतु का काल यादि में सद्भाव नहीं है इस कारण व्यभिचार दोष नहीं होता है ।
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समझिये कि काल तो स्वयं स्वकीय अभ्यन्तर बहिरंग कारण या नियत उपादान कारणों
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अनुसार क्रिया स्वरूप परिणत होरहे पदार्थों का केवल उदासीन निमित्त है । जैसे कि प्रति वृद्ध पुरुष को गमन करने में लठिया थोड़ा सहारा मात्र देती है, या चाक को घुमाने में नीचे की पतली कीली साधारण सहायक है। बैठे हुये बुड्ढे को लठिया बलात्कार से नहीं चला देती है । दण्ड करके कुम्हार के घुमाये विना विचारी स्थिर कील चाक को नहीं घुमा देती है, इसी प्रकार काल क्रिया का उदासीननिमित्त है । जैसे तिनका आदि में वायु प्र ेरक निमित्त होरहा है उस प्रकार काल क्रिया का स्वातंत्र्यवृत्ति से सम्पादक नहीं है । यद्यपि जीवों के साथ बंध रहा पुण्य, पाप, भी स्वयं गतिरहित होकर अन्य इष्ट, अनिष्ट, वस्तुनों की गति करने में सहायक होजाता है तथापि अप्राप्यकारी वह निमित्त कारण भले ही रहो किन्तु प्रेरक निमित्त नहीं है ।
तारों में बह रहा बिजली का प्रवाह जैसे पंखा, ट्राम गाड़ी, आदि की गतियों का निर्वर्तक बनानेवाला है वैसा श्रदृष्ट नहीं है, इसी प्रकार चुम्बकं पाषाण, भले ही लोहे का आकर्षण कर उसको चिपटा लेवे किन्तु यहाँ वहाँ गमन किये विना स्वतंत्रता पूर्वक लोहे को ठेड़ा, तिरछा, ऊंचा, नीचा, नहीं चला सकता है, बौइलर से निकल रही भाप स्वयं गतिमान् होती हुई ऐ जिन को चलाने में प्रेरक कारण होजाती है । सत्य बात यह है कि मंत्रशक्ति, ऋद्धि, प्रतिशय, अदृष्ट, तंत्र आदि पदार्थ इस क्रिया के निमित्त कारण भले ही होजांय किन्तु प्रेरक कारण वे ही द्रव्य हैं जो स्वयं क्रियावान् हैं हम जैन क्रियारहित कारण से दूसरे में क्रिया होजाने का निषेध नहीं करते हैं । प्रादिभूत क्रियारहित कारणों से ही पहिली क्रिया उपजेगी हाँ जो प्रकृष्ट प्रेरक होकर दूसरे पदार्थ में क्रिया को करेगा वह स्वयं क्रियावान् अवश्य होना चाहिये । प्रकृत में जीव द्रव्य शरीर में क्रिया का प्रेरक सम्पादक है अतः वह क्रियावान् प्रवश्य होना चाहिये जैसे कि पत्तों प्रादिक में क्रियाओं का सम्पादक वायु स्वयं क्रियावान् है । धीवर पालकी में वैद्य जी को लिये जा रहे हैं यहाँ वैद्य जी में क्रिया पालकी द्वारा हो रही है, पालकी में क्रिया को धीवर कस रहे हैं धीवरों के शरीर में क्रियाओं को उनकी प्रारमायें