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________________ ६२२ श्लोक-वार्तिक कणाद आदि के दर्शनशास्त्र अथवा उन दर्शनों के आश्रित हो रहे बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक मतावलम्बी पुरुष अन्य दृष्टि हैं । उन दर्शनों या दार्शनिक पुरुषों की प्रशंसा और समीचीन स्तुति करना तो अन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तव है । ये प्रसिद्ध हो रहे शंकादिक दोष इस सम्यग्दर्शन गुण के अथवा सम्यग्दर्शनगुण वाले जीव के पाँच अतीचार समझने चाहिये, सूत्रोक्त अन्यदृष्टि में जैसे कर्मधारय और बहुव्रीहि समास किये गये हैं उसी प्रकार सम्यग्दष्टिपद का भी सम्यक ( समीचीना ) चासौ दृष्टिरिति सम्यग्दष्टिः। अथवा समीची दृष्टिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिस्तस्य सम्यग्दृष्टः यों निरुक्ति कर सम्यग्दर्शन गुण अथवा सम्यग्दर्शन गुणवाले सम्यग्दृष्टि जीव के शंकादि पाँच अतीचार जान लिये जाते हैं। कः पुनः प्रशंसासंस्तवयोः प्रतिविशेषः ? इत्युच्यते-वाङ्मानसविषयभेदात् प्रशंसासंस्तवयोर्भेदः । मनसा मिथ्यादृष्टिज्ञानादिषु गुणोद्भावनाभिप्रायः प्रशंसा, वचसा तद्भावनं संस्तव इति प्रत्येयम् । यहाँ कोई प्रतिवादी कटाक्षपूर्वक प्रश्न उठाता है कि प्रशंसा और संस्तव में भला फिर क्या सूक्ष्म अन्तर है ? बताओ, यों कटाक्ष प्रवर्तने पर ग्रन्थकार करके समाधान कहा जाता है कि वचन और मन की विषयता अनुसार भेद से प्रशंसा और संस्तव में भेद है ( विषयत्वं सप्तम्यर्थः ) मन करके मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान, चारित्र, श्रद्धान, तपः, आदि में प्रकृष्ट गुणपना प्रकट करने का अभिप्राय तो प्रशंसा है और वचन से मिथ्यादृष्टियों के उन विद्यमान अविद्यमान गुणों का भावना करते हुये उच्चारण करना संस्तव है इस प्रकार दोनों में अन्तर निर्णय कर लेना चाहिये। प्रकरणादगार्यवधारणमिति चेन्न, सम्यग्दृष्टिग्रहणस्योभयार्थत्वात् । सत्यप्यगारिप्रकरणे नागारिण एव सम्यग्दृष्टेरितीष्टमवधारणं । सामान्यतः सम्यग्दृष्टयधिकारेऽपि पुनरिह सम्यग्दृष्टिग्रहणस्यागार्यनगारसंबंधनार्थत्वात् । एतेनानगारस्यैवेत्यवधारणमपास्तं, उत्तरत्रागारिग्रहणानुवृत्तेः । ___ यहाँ किसी आक्षेपक का मंतव्य है कि गृहस्थ के व्रत और शीलों का यह प्रकरण है अतः उस गृहस्थ में पाये जा रहे सम्यग्दर्शन के ही ये पांच अतीचार हैं ऐसा अवधारण हो सकेगा, मुनियों के सम्यग्दर्शन में ये पांच अतीचार नहीं लग सकेंगे। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि सूत्रमें सम्यग्दृष्टि पद का ग्रहण है। अतः श्रावक और अनगार दोनों के सम्यग्दर्शनों के ये अतीचार माने जाते हैं । सम्यग्दृष्टि पद का ग्रहण करना सामान्यरूप से दोनों के लिये 'लागू है, यदि श्रावक संबंधी सम्यग्दर्शन के ही ये अतीचार इष्ट होते तो सम्यग्दृष्टि पद देने की कोई आवश्यकता न थी, अगारी का प्रकरण होने से ही अगारी के सम्यग्दर्शन की बिना कहे ही प्रतिपत्ति हो जाती, यों सम्यग्दृष्टिपद व्यर्थ हो कर ज्ञापन करता है कि षष्ठ, सप्तम, गुणस्थानवर्ती मुनि और पश्चम गुणस्थानवर्ती श्रावक दोनों के संभव रहे क्षयोपशम सम्यक्त्व के ये पांच अतीचार हैं। अतः अगारी यानी गृहस्थ का प्रकरण होते सन्ते भी ये अगारी ही सम्यग्दृष्टि के अतीचार हैं यह अवधारण इष्ट नहीं किया जा सकता है जब कि यहां सामान्यरूप से सम्यग्दृष्टि का अधिकार चला आ रहा है, क्योंकि अहिंसादि अणुव्रत और सात शील सम्यग्दृष्टि जीव के ही संभवते हैं । तो भी यहां फिर सम्यग्दृष्टिपद का ग्रहण करना तो अगारी, अनगार, दोनों का संबंध करने के लिये है। प्रत्युत चतुर्थ गुणस्थानवर्ती क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव के भी ये अतीचार लग जाते हैं । इस कथन करके इस अवधारण का भी प्रत्याख्यान किया जा चुका है कि ये अतीचार अनगार (मुनि) ही के सम्यग्दर्शन के हैं। क्योंकि व्रतशीलेष, बन्ध, वध, मिथ्योपदेश.. आदि अग्रिम सत्रों में भी "अणुव्रतोऽगारी" सूत्र के अगारी पद के ग्रहण की अनुवृत्ति चली आ रही है अतः अगारी पद का
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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