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________________ सप्तमोऽध्याय ग्रहत्याग, दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग संख्यान, अतिथिसंविभाग, सल्लेखना, यों श्रावकों के पाये जा रहे सम्यक्त्व और पाँच अणुव्रत, तथा सात शील, एक सल्लेखना इन चौदहों गुणों के अतीचारों का वर्णन द्वितीय आह्निक में किया जायगा । शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टरतीचाराः ॥२३॥ शंका करना, आकांक्षा करना, ग्लानि करना, अन्यमिथ्यादृष्टियों की मन से प्रशंसा करना और मिथ्यादष्टियों के विद्यमान अविद्यमान गुणों का संस्तवन कहना ये पांच सम्यग्दर्शन के अतीचार है अर्थात् निर्ग्रन्थों की मोक्ष होती है ? या सग्रन्थों की भी मुक्ति हो जाती है ? अथवा क्या गृहस्थ मनुष्य, पशु, स्त्री भी कैवल्य को प्राप्त कर लेते हैं ? इस प्रकार शंकायें करना अथवा अनेक शुभ कार्यों में भय करने की टेव रखना शंका है । इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी भोगों की आकांक्षा करना कांक्षा नाम का दोष है। रत्नत्रययुक्त शरीरधारियों की घृणा करना, उनके स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना आदि को दोष रूप से प्रकट करना विचिकित्सा है। जैन धर्म से बाह्य हो रहे पुरुषों के ज्ञान, चारित्र, गुणों की मन से प्रशंसा करना अन्यदृष्टि प्रशंसा है । अन्यमतावलम्बियों के सद्भूत असद्भूत गुणों को वचन से प्रकट करना संस्तव कहा जाता है । अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतीचार, और अनाचार, ये चार दोष माने गये हैं। "क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रम, व्यतिक्रमं शीलवतेविलंघनं, प्रभोतिचारं विषयेषु वतेनं, बदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ।।" मानसिक शुद्धि की हानि हो जाना अतिक्रम है। विषयों की अभिलाषा होना व्यतिक्रम है। व्रतों की एक देश रक्षा का अभिप्राय रखते हुये एक अंश की क्षति कर देना अतीचार है। विचार पूर्वक ग्रहण किये गये व्रतों की रक्षा का लक्ष्य नहीं रख कर पापक्रियाओं में उच्छखल प्रवृत्ति करना अनाचार है। दर्शन मोहनीय कर्म की देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति का उदय हो जाने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व में ये अतीचार संभवते हैं । शंका आदि करने वाले जीव के सम्यग्दर्शन गुण की रक्षा रही आती है और एक देश रूप से सम्यक्त्व का भंग भी हो जाता है। जीवादितत्वार्थेषु रत्नत्रयमोक्षमार्गे तत्प्रतिपादके वागमे तत्प्रणेतरि च सर्वज्ञ सदसवाभ्यामन्यथा वा संशीतिः शंका, सद्दर्शनफलस्य विषयोपभोगस्येहामुत्र चाकांक्षणमाकांक्षा, आप्तागमपदार्थेषु संयमाधारे च जुगुप्सा विचिकित्सा, सुगतादिदर्शनान्यन्यदृष्टयस्तदाश्रिता वा पुमांसस्तेषां प्रशंसासंस्तवौ अन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवौ । त एते सम्यग्दृष्टेर्गुणस्य तद्वतो वातीचाराः पञ्च प्रतिपत्तव्याः । जीव, अजीव आदिक तत्त्वार्थों में या रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग में अथवा उन जीवादि और रत्नत्रय के प्रतिपादक आगम में एवं उन तत्त्वों के प्रणेता सर्वज्ञमगवान में विद्यमान अविद्यमान पने कर के अथवा अन्य प्रकारों से संशय करना शंका है । अर्थात्-साततत्त्व, रत्नत्रय, जिनागम, सर्वज्ञ देव, ये हैं या नहीं । अथवा इन के स्वरूप विपर्यास के विकल्पों अनुसार शंकायें करना शंका दोष है । सम्यग्दर्शन के फल हो रहे विषय भोगों के इहलोक और परलोक में हो जाने की आकांक्षा करना कांक्षा है। आप्त, आगम, और पदार्थों में तथा समय के आधार हो रहे साधुओं में जुगुप्सा यानी घृणा करना विचिकित्सा है। अन्याश्च या दृष्टयः अन्यदृष्टयः अथवा अन्या दृष्टिर्येषां ते अन्यदृष्टयः यों समास कर बुद्ध, कपिल,
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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