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________________ सप्तमोऽध्याय ६०३ पाप सहित क्रियाओं से निवृत्ति होने का असम्भव हो जाने इस गृहस्थ के व्रत छोटे कहे जाते हैं । वह ती श्रावक नियम से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि प्राणियों की संकल्प पूर्वक हिंसा करने में निवृत्त हो रहा है। इतना ही इसके अहिंसाणुव्रत है । अपने कार्य के लिये वह पृथिवी, जल, तेज, वायुकायिक जीवों की और अनन्तकाय वर्जित वनस्पति जीवों की विराधना कर देता है तथा वह स्नेह, द्वेष और मोह का आवेश हो जाने से असत्य बोलने के परित्याग में प्रवीण रहता है । ह, अनेक स्थलों पर सूक्ष्मझूठ बोल देता है, यह गृहस्थ का सत्याणुव्रत है । अन्य को पीड़ा करने वाले अदत्तादान से और राजभय, पंचभय से उपजाये गये निमित्त स्वरूप अदत्त से भी जो प्रतिनिवृत्त हो रहा है वह तीसरा अचौर्याणुव्रत है । अर्थात् जो अपना भी है किन्तु वह महान संक्लेश से प्राप्त हो सकता है ऐसे परायी पीड़ा को करने वाले जो ग्रहण नहीं करता है । तथा जो धन राजा के डर या पश्चों के भय अनुसार निश्चय करके छोड़ दिया गया है उस धन को भी ग्रहण करने में जिसका आदर नहीं है वह श्रावक अचौर्याणुव्रती है । अन्य सूक्ष्म चोरियों का इसके परित्याग नहीं है । घर में डाल कर स्वीकार कर ली गयी अथवा नहीं भी स्वीकार की गई ऐसी गृहीत और अगृहीत परस्त्रियों के प्रसंग से विरति करना चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत है । यह मात्र स्वकीय स्त्री में रति को करता है । यों यावत् स्त्रियों का परित्याग नहीं होने से ब्रह्मचर्य व्रत इसका अणु समझा गया । गाय, भैंस, अन्न, खेत, मकान, चाँदी, सोना आदि का अपनी इच्छा से परिमाण कर उस अवधि का नहीं अतिक्रमण कर रहा गृहस्थ परिग्रहपरिमाण व्रती समझ लेना चाहिये । परिमित खेत आदि का ग्रहण कर रहा गृहस्थ यावत् परिग्रहों का त्यागी नहीं है । अतः इसके पाँचवां अपरिग्रहव्रत अणु यानी छोटा समझा जाता है । यहाँ पाँचों स्थानों पर पुल्लिंग पद उपलक्षण है । कर्म भूमि कीं तीनों लिङ्गवाले कतिपय मनुष्य स्त्रियां या नपुंसक अथवा तिर्यञ्च भी अणुव्रतों को धारण कर सकते हैं। यों अणु यानी सूक्ष्म व्रतों का धारी अगारी कहलाता है। सूत्र में कहे बिना केवल "अणुव्रतोऽगारी" इस सूत्र की सामर्थ्य से परिशेष न्याय अनुसार यह बात सिद्ध हो जाती है कि जिस पुल्लिंग पुरुष के वे पाँचों व्रत महान् हैं यानी परिपूर्ण रूप से हैं वह अनगार नाम का दूसरा व्रती है. इस बात को ग्रन्थकार स्वयं अग्रिम वार्तिक द्वारा स्पष्ट रूप से कहे देते हैं । तत्र चाणुव्रतोऽगारी सामर्थ्यात्स्यान्महाव्रतः । अनगार इति ज्ञेयमत्र सूत्रांतराद्विना ॥१॥ वहाँ अगारी और अनगार दो व्रतियों का निरूपण करने के अवसर पर सूत्र द्वारा एक सूक्ष्म व्रतवाले को अगारी कह देने की सामर्थ्य से यहाँ अन्य सूत्र के विना ही "महान् व्रतों का धारी पुरुष अनगार है” यों दूसरा व्रती समझ लेना चाहिये । अतिसंक्षेप से अमेय प्रमेय का कथन कर रहे सूत्रकार महाराज सामर्थ्यसिद्ध तत्त्व की प्रतिपत्ति कराने के लिये पुनः अन्य सूत्रों को नहीं रचते फिरते हैं । गम्भीर वक्ताओं को व्याख्याकारों के लिये भी बहुत सा सामर्थ्यसिद्ध प्रमेय स्पष्टोक्ति नहीं किये छोड़ना पड़ता है । उदात्त गृहस्थ परोसने योग्य सभी भोजनों को नहीं हड़प जाता है। 1 दिग्विरत्यादिसंपन्नः स्यादगारीत्याह ; - यहाँ प्रश्न उठता है कि अणुव्रती और महाव्रती में क्या इतना ही अन्तर है कि एक के घर होते हुये छोटे पाँच व्रत हैं और दूसरे के गृहपरित्याग के साथ पाँचों महान् व्रत हैं। अथवा क्या अन्यभी कोई विशेष है इस प्रकार प्रश्न उतरने पर दिग्विरति, देशविरति आदि सात शीलों से भी सम्पत्तियुक्त अगारी होगा । इस बात को सूत्रकार महाराज स्पष्टरीत्या कर रहे हैं ॥
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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