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श्लोक वार्तिक केवल साधुओं को ही व्रती मानने वाली आम्नायों की भी कमी नहीं है। जैन सिद्धान्त अनुसार अगारी और अनगार दोनों भी व्रती समझे जाते हैं।
नन्वेवंमनगारस्य पथिकादेः व्रतित्वं स्यादित्याशंकामपास्यन्नाह
अनगार पनि का इस प्रकार गृहरहितपना लक्षण करने पर यहाँ आशंका उपजती है कि तब तो अगार रहित हो रहे पथिक ( बटोही या रास्तागीर ) कृषक, नाविक, प्रवासी, अनाथ, निर्वासित, ( निकाल दिया गया ) आदि जीवों के भी व्रती हो जाने का प्रसंग आ जावेगा । इस प्रकार हुई आशंका का निराकरण कर रहे ग्रन्थकार उत्तर वार्तिक को कह रहे हैं ।
सोऽप्यगार्यनगारश्च भावागारस्य भावतः।
अभावाच्चेति पांथादे नगारत्वसंभवः ॥१॥ वह शल्य रहित हो रहा व्रतों का धारी व्रती भी गृहस्थ और अनगार इन दो भेदों से दो प्रकार है यह सूत्रकार द्वारा कह दिया है। अगार पद से यहां भाव घर यानी परिणामों में घर का अनुराग रखना लिया गया है । उस भावघर के सद्भाव से अगारी और भावघर के अभाव से अनगार व्रती हुआ समझना चाहिये । इस कारण पथिक आदि को अनगारपने की सम्भावना नहीं है। क्योंकि पथिक आदि के तत्कालीन गृहवास नहीं होते हुये भी अभ्यन्तर परिणामों में गृहवास का तीव्र अभिष्वंग हो रहा है। तथा घर में बैठकर आहार कर रहे या किंचित् काल उपदेश दे रहे मुनि महाराज के घर का सम्बन्ध होते हुये भी घर की भाव गृद्धि नहीं होने से उसी प्रकार गृहस्थपना नहीं है जैसे कि वस्त्रधारीपन का उपसर्ग सह रहे चेलोपसृष्ट मुनि के तन्तुमात्र भी परिग्रह नहीं माना जाता है ।
कः पुनरगारीत्याह;
यहाँ कोई प्रश्न उठाता है कि क्रम अनुसार व्रतों की दृढ़ता के उपासक होने से आदि में कहे गये अगारी का लक्षण फिर क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं।
अणुव्रतोऽगारी ॥२०॥ जिस के पाँचों व्रत अल्प हैं वह जीव अगारी यानी श्रावक कहा जाता है। अर्थात् हिंसा आदिक पाँचों पापों में से किसी एक या दो पापों की निवृत्ति हो जाने से ही अणुव्रती नहीं समझा जाय, किन्तु पाँचों ही व्रतों की विकलता हो जाने से अणुव्रती बनने की विवक्षा है। अणु शब्द का अन्वय विरति के साथ है।
अणुशब्दः सूक्ष्मवचनः सर्वसावधनिवृत्त्यसंभवात् । स हि द्वीन्द्रियादिव्यपरोपणे निवृत्तः, स्नेहद्वेषमोहावेशादसत्याभिधानवर्जनप्रवणः, अन्यपीडाकरात् पार्थिवभयाधुत्पादितनिमित्तादप्यदत्तात् प्रतिनिवृत्तः, उपात्तानुपात्तान्यांगनासंगाद्विरतिः; परिच्छिन्नधनधान्यक्षेत्राधवधिगृही प्रत्येतव्यः ॥ सामर्थ्यात् महाव्रतोऽनगार इत्याह
सूत्र में पड़ा हुआ अणुशब्द सूक्ष्म अर्थ को कह रहा है। जिस जीव के पाँचों व्रत अणु यानी सूक्ष्म हैं वह अणुव्रत यानी अणुव्रती है । अणूनि प्रतानि यस्य स अणुव्रतः ( बहुव्रीहि समास) सम्पूर्ण