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________________ सप्तमोऽध्याय के प्राणव्यपरोपणस्वरूप हिंसा, अनृत आदिक पाप नहीं संभवते हैं तिसी प्रकार मैथुन भी प्रमाद नहीं होने पर किसी के नहीं संभवता है क्यों कि उस मैथुन की प्रमाद का सद्भाव होने पर ही उत्पत्ति मानी गयी है। तीव्र अनुभाग वाली पाप क्रियाओं का प्रमाद के साथ अन्वयव्यतिरेक है "प्रमादाभावेऽपि” यहाँ अपि शब्द का कोई विशेष अर्थ नहीं है। अथवा यों अर्थ कर लिया जाय कि भले ही संयमी मुनि करके किसी जीव का प्राणवियोग भी कर दिया जाय तथापि प्रमाद नहीं होने पर मुनि को हिंसा नहीं लगती है यों अपि का प्राणव्यपरोपणादिक के साथ व्युत्क्रम से अन्वय किया जायगा । यहाँ कोई कुचोद्य उठाता है कि तीर्थ यात्रा, मेला, पंचकल्याणक आदि में भीड़ के अवसर पर सुन्दर स्त्रियों का केवल आलिंगन हो जाना तो प्रमाद रहित मुनियों के भी संभव जाता है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि चारित्रमोह का उदय हुये बिना उस आलिंगन मात्र को मैथुनपने की जब लोक में भी प्रसिद्धि नहीं है तो शास्त्र में आत्म संक्लेश स्वरूप कुशील तो वह कैसे भी प्रसिद्ध नहीं हो सकता है। जैसे कि पुत्र का माता के साथ आलिंगन करना कुशील नहीं माना गया है "येनैवालिंग्यते कान्ता तेनैवालिंग्यते सुता, मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः” इस नीति का लक्ष्य रखना चाहिये अतः मात्र अंगना के अंग का आलिंगन हो जाने से अप्रमत्त मुनि के कुशील सेवन का प्रसंग नहीं आ सकता है। स्पर्शनमैथुनदर्शनादि वा केषांचित प्रसिद्धमिति चेन्न, तस्य रिरंसापूर्वकस्योपगमात् । न च संयतस्यांगनालिंगितस्यापि रिंसास्ति, असंयतत्वप्रसंगात् । तदंगनाया रिरंसास्तीति चेत् तस्या एव मैथुनमस्तु लेपमयपुरुषालिंगनवत् । प्रायश्चित्तोपदेशस्तत्र कथमिति चेत्, तस्यापि प्रसंगनिवृत्त्यर्थत्वात् । विस्रब्धालोकनादावपि तदुपदेशस्याविरोधात् ॥ यहाँ कोई आक्षेप उठाता है कि किन्हीं-किन्हीं संयमी जीवों के अंगना स्पर्शन करना या मैथुनदर्शन करना आदि प्रसिद्ध हो रहे हैं । स्त्री परीषह को जीत रहे किसी मुनि के उपसर्ग के अवसर ऐसी समस्या हो सकती है । अर्थात् किन्हीं किन्हीं मतावलंबियों के यहाँ स्पर्शन करना, मैथुन क्रिया को देखना आदिक प्रसिद्ध है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि उन स्पर्श करना या मैथुन देखना अथवा हाव, नर्म, आदिक परिणतियों का रमण करने की अभिलाषापूर्वक ही होना स्वीकार किया गया है 'रंतु इच्छा रिसा, पहिले स्त्री या पुरुष के रमण करने के लिये अभिलाषा होती है पुनः रागपर्ण स्पर्शन, मैथन दर्शन. आदिक हो सकते हैं। कितने ही मनुष्य कबूतरों को पालते हैं उनकी कामचेष्टाओं को देखते हैं । अन्य पशु, पक्षियों की लीलाओं को देख कर प्रसन्न होते हैं । ये सब क्रियायें रिरंसापूर्वक हैं किंतु अंगनाओं करके गाढ़ आलिंगन किये जा चुके भी उपसर्ग प्राप्त संयमी मुनि के रमण अभिलाषा नहीं है। रमण अभिलाषा हो जाने पर मुनिव्रत रक्षित नहीं हो सकता है। असंयमीपने का प्रसंग आ जावेगा। अतः संयमियों रिरंसापूर्वक स्पर्शन आदिक कभी नहीं संभवते हैं। कदाचित् स्त्रीपरीषह जय कर रहे मुनिको यदि अंगनायें आलिंगन भी कर लेवें तो भी मुनि महाराज के रमण अभिलाषा नहीं है । घोर उपसर्ग सहते हुये वे उस समय आत्मध्यान में एकाग्र रहे आते हैं। भले ही एक नहीं चार स्त्रियां उनको आलिंगन करती रहें संयमी के अणुमात्र रिम्सा नहीं उपजती है। यदि यहां कोई यों विक्षेप करे कि मुनि के साथ आलिंगन कर रही उस अंगना की तो रिरंसा है ही। अतः मैथुन समझ लिया जाय । यों कहने पर तो आचार्य कहते हैं कि तब तो उस रमणी के ही मैथुन पाप होवेगा । जैसे कि काष्ठ, पाषाण, गूदड़ा, रबड़ आदि के बने हुये जड़ पुरुष, मूर्ति या लेपमय पुरुष के साथ आलिंगन करने पर उस अंगना के ही कुशील करने का प्रसंग आता है । जड़, मूर्ति या चित्र के नहीं। उसी प्रकार उपल समझ कर मृगों करके स्वशरीर ७४
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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