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श्लोक-वार्तिक दो द्रव्यों के होते हुये भी मैथुन नहीं कहा जा सकता है । अतः मिथुन का भाव मैथुन है यह लक्षण बुरा नहीं है दूसरा लक्षण जो मिथुन का कर्म मैथुन कहा था वह भी अच्छा है। दो पुरुषों की भार वहन, पानी खेंचना आदि क्रिया विशेष को मैथुन का प्रसंग नहीं आ सकता है क्योंकि वहां अन्तरंग कारण चारित्र मोह की उदीरणा नहीं है हां चारित्र मोह का प्रबल उदय होने पर दो पुरुष या दो लड़के अथवा दो पुरुष, पशु भी यदि कोई राग क्रिया करेंगे तो वह मैथुन समझा जायगा। तीसरा भी जो स्त्री पुरुषों
मैथुन कहा गया था वह लक्षण भी चोखा है। रसोई पाक आदि तो फिर अन्य करके भी किये जा सकते हैं अतः स्त्री पुरुषों की रति विषयक क्रिया मैथुन कही जा सकती है कोई बाधा नहीं है । सबसे 'बढिया बात यह है कि प्रमत्त योग की अनुवृत्ति चली आ रही है अतः चारित्र मोह के उदय से प्रमत्त हो रहे केवल स्त्री का या पुरुष का अथवा दोनों का यहां तक कि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों का भी जो रति स्वरूप परिणाम है वह मैथुन है। यह सिद्ध हुआ।
अहिंसादिगुणबृंहणाद् ब्रह्म तद्विपरीतमब्रह्म तच्च मैथुनमिति प्रतिपत्तव्यं रूढिवशात् । ततो न प्राणव्यपरोपणादीनां ब्रह्मविपरीतत्वेऽप्यब्रह्मत्वप्रसिद्धिः। तदिदमब्रह्म प्रमत्तस्यैव संभवतीत्याह;
__ "बृहि वृद्धौ” धातु से ब्रह्म शब्द बनाया है । अहिंसा, सत्य, आदिक गुणों की वृद्धि कर देने से ब्रह्म नाम का व्रत कहा जाता है । उस ब्रह्म से जो विपरीत है यह अब्रह्म है और यों रूढि के वश से वह मैथुन परिणाम हुआ इस प्रकार प्रतिपत्ति कर लेनी चाहिये । तिस कारण प्राणों का वियोग करना, असत्य बोलना, जुआ खेलना आदि पाप क्रियाओं को यद्यपि ब्रह्म से विपरीतपना है तो भी रूढि का आश्रय लेने से अब्रह्मपने की प्रसिद्धि नहीं है । अर्थात् 'गच्छति इति गौः' यों यौगिक अर्थ का अवलंब लेने पर मनुष्य, घोड़ा, रेलगाड़ी, वायु आदि भी गौ हो सकती है और नहीं चल रहीं गाय या पृथिवी तो गौ नहीं हो सकेगी किंतु "योगाद्रूढिर्बलीयसी” इस नियम अनुसार बलवती रूढि का आश्रय करने पर गौः शब्द पशु में ही प्रवर्त्तता है या वाणी, पृथ्वी, दिशा आदि दश अर्थों में भी प्रवर्ग जाता है उसी प्रकार यहाँ पर भी अब्रह्म शब्द कुशील में रूढ है अतः हिंसा, झूठ आदि की निवृत्ति हो जाती है। तिस कारण यों सिद्ध हो चका यह अब्रह्म नाम का पाप तो प्रमादी जीव के ही संभवता है प्रमाद रहित जीव के नहीं इस सिद्धांत को पुष्ट करते हुये ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं । इसको ध्यान लगा कर समझ लीजियेगा।
तथा मैथुनमब्रह्म प्रमत्तस्यैव तत्पुनः ।
प्रमादरहितानां हि जातुचित्तदसंभवः ॥१॥ - जिस प्रकार हिंसा, अनृत आदिक पाप क्रियायें प्रमत्त जीव के ही हो रही मानी गयी हैं तिसी प्रकार वह अब्रह्म यानी कुशील सेवन भी फिर प्रमादी जीव के ही संभवता है । कारण कि प्रमाद रहित जीवों के कदाचित् भी उस अब्रह्म के होने का असंभव है।
___ न हि यथा प्रमादाभावेपि कस्यचित् संयतात्मनः प्राणव्यपरोपणादिकं संभवति तथा मैथुनमपि, तस्य प्रमादसद्भाव एव भावात् । वरांगनालिंगनमात्रप्रमत्तस्यापि भवतीति चेन्न, तस्य मैथुनत्वाप्रसिद्धः पुत्रस्य मात्रालिंगनवत् ।
जिस प्रकार कषाय, इन्द्रियलोलुपता आदि प्रमादों का अभाव होते संते किसी भी संयमी जीव