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________________ ५७६ श्लोक-वार्तिक यहाँ कोई आक्षेप उठाता है कि नहीं दिये गये सभी पदार्थों के ग्रहण को यदि चोरी रूप से कल्पित किया जायगा तो दूसरों करके नहीं दिये गये आठ प्रकार के कर्मों या आहार वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा, तैजसवर्गणास्वरूप नोकर्मों को ग्रहण कर अपने अधीन कर रहे अव्रती, अणुव्रती, महाव्रती, सभी जीवों के चोरी कर लेने सहितपन का प्रसंग आ जावेगा, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्यों कि जिन ही रुपया, पैसा, वस्त्र, मणि, अन्न आदि में दान और ग्रहण की प्रवृत्ति के व्यवहार संभव रहे हैं उन रूपया आदि में ही अदत्त का ग्रहण कर लेने पर चोरी करने की उपपत्ति मानी गयी है । कर्म या नोकर्मों में देने लेने का व्यवहार ही नहीं है अतः अपना कटाक्ष उठालो, अदत्त और आदान शब्द की शक्तियों पर लक्ष्य रक्खो,रूखे आक्षेपों का फेंकना उचित नहीं है । पुनः कोई विना समझे कुचोद्य उठाता है कि सूत्रकार ने तो यों कहा नहीं है कि जिसमें देना लेना संभव होय वहाँ चोरी है । यह आप टीकाकार केवल अपनी इच्छा से स्वतंत्र व्याख्यान कर रहे हैं कि किसी का नहीं दिया हुआ देने योग्य तृणमात्र भी नहीं लेना चाहिये । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि सूत्रकार ने अदत्तादान शब्द का ग्रहण किया है, अदत्त पदार्थ का ग्रहण कर लेना चोरी है, इस प्रकार कह चुकने पर जहाँ ही दान, आदान, की प्रवृत्ति होगो वहाँ ही चोरी का व्यवहार है यों उक्त सूत्र द्वारा तात्पर्य कह दिया गया हो जाता है । दाँत कुरेदने के लिये या पीठ के करप्राप्त्यशक्य स्थान को खुजाने के लिये किसी गृहस्थ को यदि तृण की आवश्यकता है तो वह उसी तृण को बिना दिये हुये ले सकता है जिसको कि सर्व साधारण अपने उपयोग में ला सकते हैं। अन्यथा प्रमाद योग हो जाने से तृण की चोरी समझी जायगी। मट्टी, जल, या वायु जहाँ नियत हो रही हैं या माँगकर अथवा मूल्य देकर देने लेने के व्यवहार में आ रही हैं वहाँ का आदान करने वाला अथवा नियत पुरुष के लिये चल रहे बिजली के पंखे की वायु को हड़पने वाला अपने अचौर्य व्रत की रक्षा नहीं कर सका है । प्रमादयोग ही पापों में डुबोता है। तत्कर्मापि किमर्थं कस्मैचिन्न दीयते इति चेन्न, तस्य हस्तादिग्रहणविसर्गासंभवात् । स एव कुत इति चेत्, सूक्ष्मत्वात् । कथं धर्मो मयास्मै दत्त इति व्यवहार इति चेत्, धर्मकारणस्यायतनादेर्दानात् कारणे कार्योपचाराद्धर्मस्य दानसिद्धेः । धर्मानुष्ठानात् मनःकरणात् वा तथा व्यवहारोपपत्तेरनुपालंभः। तब तो आक्षेप कर्ता पुनः कहता है कि कर्म किसी के लिये भी नहीं दिये जाते हैं यह बात भी क्यों ग्रहण कर ली जावेगी ? लोक में प्रसिद्धि है कि वृक्षों के फल दूसरों के लिये जलसिंचन करके जाते हैं। यह खिड़की हमको वायु दे रही है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यों तो न कहना क्योंकि हाथ, संकल्प, रजिस्टरी करके दे देना आदि व्यापारों से कर्मों का ग्रहण करना या दान करना असम्भव है । जैसे कि रुपया, वस्त्र, गाय, गृह, ग्राम आदि को हाथ आदि करणों करके दूसरों के लिये दे दिया जाता है तिस प्रकार हाथ आदि करके दूसरों के लिये कर्म नहीं दिये जाते हैं। यदि यहाँ कोई यों पूंछे कि हाथ आदि करके कर्म भी दिये लिये जाय । उन कर्मों के ग्रहण या विसर्ग का वह असंभव ही किस कारण से है ? बताओ। यों कहने पर तो जैनों की ओर से यह उत्तर है कि वे कर्म सूक्ष्म हैं हाथ आदि करके लेने देने योग्य नहीं हैं। "पुढवी जलं च छाया चरिंदिय विसयकम्म परमाण” इनको “बादर बादरबादर बादरसुहमं च सुहमथूलं च । सुहमं च सुहमसुहमं धरादियं होदि छन्भेयं” माना गया है। कर्म सूक्ष्म होने से हाथों द्वारा पकड़े ही नहीं जाते हैं । यदि यहां कोई यों आपत्ति उठावे कि हाथ आदि करके जिसका ग्रहण या विसर्ग हो सकता है वही दान, आदान का व्यवहार माना जायगा तब तो मैंने इस
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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