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सप्तमोऽध्याय
५७५ झूठ नहीं है । इस प्रकार सत्यवादी ऋषि महाराज कह रहे हैं तिस कारण यहाँ यों विचार कर लिया जाता है कि प्राणियों का अपने और दूसरों के संताप का कारण हो रहा जो वचन है भले ही वह यथार्थ देखे हुये पदार्थ का निरूपण भी कर रहा है तो भी वह यहाँ असत् विचार लिया जाता है ( समझा जायगा ) । कोई शिकार खेलने वाला हिंसक यदि यथार्थद्रष्टा पुरुष को पूंछे कि हिरण या शशा किस
ओर गया है भले ही उस द्रष्टा पुरुष ने अपनी आँखों से हिरण आदि का पश्चिम दिशा को जाना देख लिया होय तो भी वह सत्यवादी पुरुष यों कह देगा कि इधर पश्चिम दिशा को हिरण नहीं गया है । यहाँ प्रमाद योग नहीं होने से झूठ बोलना ही सत्य है और सत्य बोलना प्रमाद योग हो जाने से असत्य समझा जायगा। भले ही कोई वचन मिथ्या अर्थ को भी विषय कर रहा होय किंतु हिंसा, चोरी, व्यभिचार आदि के निषेध करने में वह मिथ्या वचन प्रवर्ग रहा है तो वह सत्य ही माना गया है। कारण कि 'सत्सु साधु सत्यं' यहाँ “तत्र साधुः" इस सूत्र से यत् प्रत्यय कर लिया जाकर सज्जन जीवों में जो साधु यानी हितस्वरूप कथन पड़े वह सत्य है ऐसा सत्य शब्द व्युत्पन्न किया गया है वही अहिंसा व्रत की शुद्धि को देने वाला है । वस्तुतः व्रत एक अहिंसा ही है उसके परिरक्षक सत्य, अचौर्य आदि हैं । जिस निस्सार सत्य से अहिंसा की हिंसा हो जाय वह असत्य ही है। प्रमादयोग की अनुवृत्ति से इस सूत्र का यह सब अर्थ निकल आता है । विशेष यह कहना है कि साधु अनुग्रह, दुजन दण्ड, स्वरूप न्याय की रक्षा के लिये दूसरी प्रतिमा तक यह व्रती निग्रह भी करता है, प्रमाद योग नहीं होने के कारण वे निग्रह कारक वचन सत्यव्रत में दूषण नहीं लगने देंगे, किंतु तीसरी प्रतिमा से ऊपर तो स्वपर संताप का कारण कोई भी वचन होगा वह असत्य ही समझा जायगा ऐसी ग्रन्थकार की आज्ञा है, हजारों लाखों में दो चार ही न्यायाधीश होते हैं, राजा की ओर से यह विभाग भी अहिंसा की ही रक्षा के लिये है किंतु जो संसार से उदासीन हैं अथवा महाव्रती मुनि हैं उनके लिये तो यह निरपवाद देशना है कि यथादृष्ट अर्थ को कह रहा भी वचन यदि स्व और पर के संताप का कारण है वह असत्य ही है और जो मिथ्या अर्थ को कह रहा भी यदि हिंसा आदि के निषेध में प्रवर्ग रहा है वह वचन सर्वांग सत्य है, कारिका में कहे हुये स्वपद से स्वकीय कषायपुष्टि या इन्द्रिय संबन्धी भोगोपभोंगों की अनुकूलता नहीं पकड़ना अन्यथा अत्याचारों की वृद्धि हो जायगी। जीवों को अत्याचारों से नहीं रोका जा सकेगा, सर्वत्र प्रमाद योग का रहस्य मनन करने योग्य है, अलं विचारशीलेभ्यः।
स्तेयं किमित्याह
अब अनृत के अनंतर कहे गये स्तेय का लक्षण क्या है ? ऐसी तत्त्व जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कहते हैं।
अदत्तादानं स्तेयं ॥१५॥ स्व के लिये नहीं दिये जा चुके पदार्थ का ग्रहण कर लेना स्तेय यानी चोरी है, यहां भी प्रमाद, योग की अनुवृत्ति हो रही है अतः देने लैने व्यवहार के योग्य पदार्थ को बिना दिये हुये ही प्रमाद योग से ग्रहण करना चोरी समझा जायगा ।
सर्वमदत्तमादानस्य स्तेयत्वकल्पनायां कर्मादेयमात्मसात्कुर्वतः स्तेयित्वप्रसंग इति चेन्न, दानादानयोर्यत्रैव प्रवृत्तिनिवृत्ती तत्रैवोपपत्तेः, इच्छामात्रमिति चेन्न, अदत्तादानग्रहणात् । अदत्तस्यादानं स्तेयमित्युक्ते हि दानादानयोर्यत्र प्रवर्तनमस्ति तत्रैव स्तेयव्यवहार इत्यभिहितं भवति ।
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