SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लोक-वातिक फल का पतन होना, चक्की का भ्रमण होना, अग्निज्वाला का ऊपरे जाना, जल या वायु का तिरछी बहना. ये सब क्रियायें क्रियावान् पदार्थों से सर्वथा भिन्न नहीं दीख रहीं हैं, हाँ पहिले धोड़ा स्थिर था अब चलने लगगया। स्थिर चाकी पीछे भ्रमण करने लग जाती है, यों क्रियावान व्यसे क्रिया का कथंचित् भेद ही निर्णीत है, सर्वथा भेद नहीं है, इस प्रकार कहनेसे हम अनेकान्त--वादियों के यहाँ कोई जैन सिद्धान्त से विरोध नहीं आता है क्योंकि क्रिया होना एक पर्याय विशेष है, अतः पर्याय होने के कारण क्रिया को द्रव्य से कथंचित् पदार्थान्तरपना व्यवस्थित है। सुवर्ण के कड़े का सुवणं से सर्वथा भेद नहीं है। द्रव्य और पर्याय का समुदाय सत् है, उत्पाद व्यय और ध्रौव्यों से तदात्मक युक्त होरहा सत् पदार्थ ना गया है। पर्याय के उत्पाद और विनाश लक्षण हैं, व्य में ध्र वपना प्रोतपोत होरहा है, अतः कर्म के उत्पाद, विनाश--स्वरूप लक्षण का द्रव्य के लक्षणांश होरहे नौव्य से भेद सिद्ध होरहा है। क्रिया, गुण, सामान्य, विशेष और समवा के पर्याय का लक्षण विद्यमान है, अतः जैन सिद्धान्त में परिस्पन्द रूप क्रिया, सहभावी-क्रमभावी पर्याय स्वरूप गुण, सदृश परिणाम या परापर विवर्त-व्यापी परिणाम, स्वरूप सामान्य, पर्याय व्यतिरेक--स्वरूप विशेष और प्रविष्वग्भाग सम्बन्ध-स्वरूप समवाय इन सब के पर्याय का लक्षण विद्यमान है, अतः इनको जैन सिद्धान्त में पर्याय पदार्थ कहा गया है, अन्यथा यानी--कर्म, गुण, आदि को पर्यायें नहीं मान कर स्वतंत्र तत्त्व (पदार्थ) माना जायगा तो अतिप्रसंग होजायगा । आपेक्षिक गुण, अविभागप्रतिच्छेद, प्रतियोगित्व, अनुयोगित्व, आदि को भी न्यारे न्यारे पदार्थ होने का प्रसंग आजायगा । प्रागभाव, प्रागसता, पश्चात् सत्ता प्रादि को और विशेष्यविशेषणभाव, आधार आधेयभाव, स्वरूप सम्बन्ध, तादात्म्य सम्बन्ध आदि को भी न्यारे न्यारे पदार्थ होजाने का प्रसंग आवेगा । यों अनन्त मूल पदार्थ होजाने पर भला वैशेषिकों के यहाँ छह या सात पदार्थों की हो व्यवस्था कहाँ रही ? यदि वैशेषिक यों कहैं कि पदार्थों की संख्या के प्रतिपादन करने वाले “धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म-वैधाभ्यां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसम्" इस कणाद ऋषि प्रणीत सूत्र में हमने एवकार द्वारा कोई अवधारण नहीं किया है । दार्शनिक बेचारा कहाँ तक अनेक पदार्थों को गिना सकता है ? छह, सात, नौ, सोलह, पच्चीस आदि कितने ही पदार्थ गिनाये जाय तो भी सैकड़ों, हजारों, पदार्थ शेष पड़े रहते हैं विद्वान जन उपरिष्ठात् उन वेशेष्यविशेषणभाव आदि पदार्थों को मान ही लेते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार उक्त उपलक्षण पदार्थों के शेषपन करके यदि अनिरिक्त पदार्थों की कल्पना की जायगी तब तो एक ही उपलक्षणभूत पदार्थ करके पर्याप्तपना है । यानी सा प्रयोजन सिद्ध हो जायंगे क्योंकि पदार्थ-प्रतिपादक सत्र में छह ही भाव पदार्थों का अवधारण नहीं है, 'तः कण्ठोक्त एक या दो पदार्थों से अतिरिक्त शेष अनेक पदार्थों के अवस्थित हो जाने पर सभी पद।। समझाये जा सकते हैं । इस बात को हम " जीवाजीवास्रव " इत्यादि सूत्र का विवरण करते समय कह चुके हैं, प्रकरण अनुसार और भी कई वार ऐसा विवेचन किया जाचुका है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy