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सप्तमोऽध्याय
५४५ येऽतिप्रसंगादिति कश्चित् । तं प्रत्युच्यते-न संवरो व्रतानि, परिस्पन्ददर्शनात् गुप्त्यादिसंवरपरिकर्मत्वाच्च ।
यहां कोई आशंका उठाता है कि इस आस्रव के प्रकरण में हिंसा आदिक से निवृत्ति हो जाने को व्रत कहना व्यर्थ है क्योंकि निवृत्तियों का संवर में अन्तर्भाव हो जावेगा। जब कि दश प्रकार के धर्मों के भीतर संयम माना गया है उसमें अहिंसादिकों का सुलभतया अन्तर्भाव हो सकता है। यदि कोई यों समाधान करे कि उस संयम के प्रपंच का विस्तार करने के लिये यहां हिंसा निवृत्ति आदि का उपन्यास किया गया है । शंकाकार कहता है कि यह तो न कहना क्योंकि यदि उस संयम का ही प्रपंच दिखलाना था तो वहां ही नवमे अध्याय में संयम के प्रकरण पर यह उपन्यास करना चाहिये था। यहां व्यर्थका प्रकरण बढ़ाने से कोई प्रयोजन नहीं सधता है। संवर का यह प्रपंच तो संवर के प्रतिपादक नवमे अध्याय में करना चाहिये किन्तु फिर यहां आस्रव तत्त्व के प्ररूपक सातवें अध्याय में नहीं। यदि यहां वहां की अप्रकृत बातों को इस अध्याय में लिखा जायगा तो अतिप्रसंग हो जायगा यानी मोक्षतत्त्व के प्रपंच या मुक्त जीवों के चरित्र भी यहां लिख देने चाहिये जो कि इष्ट नहीं है। अतः इन व्रतों का निरूपण करना यहां व्यर्थ ही है। यहां तक कोई पण्डित अपनी शंका को पूरा कह चुका है । उस पण्डित के प्रति आचार्य महाराज करके यह उत्तर कहा जाता है कि अहिंसादिक व्रत तो संवर नहीं है संवर स्वरूप अपरिस्पन्दात्मक क्रियाओं से आस्रव होना रुक जाता है किन्तु यहां अहिंसादिकों में परिस्पन्द क्रिया होना देखा जाता है । सत्य बोलना, दिये हुये को लेना, ऐसी क्रिया करना स्वरूप व्रतों की प्रतीति हो रही है । एक बात यह है कि गुप्ति, समिति आदि स्वरूप संवर कह दिया जावेगा। "आस्रवनिरोधः संवरः" “स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्र" उस संवर के ये व्रत परिवार या सहायक हैं । व्रतों में साधु जो परिष्कृत हो जाता है तब संवर को सुखपूर्वक कर लेता है । संवर के अंगों का संस्कार ये व्रत कर देते हैं तिस कारण संवर के प्रकरण से इस शुभास्रव स्वरूप व्रत को पृथक कहा गया है।
ननु पंचसु व्रतेष्वनन्तर्भावादिह रात्रिभोजनविरत्युपसंख्यानमिति चेन्न, भावनांतर्भावात् । तत्रानिर्देशादयुक्तोऽन्तर्भाव इति चेन्न, आलोकितपानभोजनस्य वचनात् । प्रदीपादिसंभवे सति रात्रावपि तत्प्रसंग इति चेन्न, अनेकारंभदोषात् । परकृतप्रदीपादिसंभवे तदभाव इति चेन्न, चंक्रमणाघसंभवात् । दिवानीतस्य रात्री भोजनप्रसंग इति चेन्न, उक्तोत्तरत्वात् ।।
यहाँ कोई पुनः प्रश्न उठाता है कि अहिंसादिक पांच व्रतों में अन्तर्भाव नहीं हो जाने के कारण यहां रात्रिभोजन त्याग नाम के छठे व्रत का उपसंख्यान करना चाहिये। सूत्र में कोई त्रुटि रह जाय तो वार्तिक बनाई जा सकती है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि पांच व्रतों की पच्चीस भावनायें आगे कही जावेंगी उन में रात्रिभोजनत्याग का अन्तर्भाव हो जाता है। यदि कोई यों आक्षेप करे कि उन वाग्गुप्ति, क्रोधप्रत्याख्यान आदि भावनाओं में कण्ठोक्त रात्रिभोजन त्याग का निर्देश नहीं किया गया है अतः बिना कहे ही चाहे जिसका चाहे जहां अन्तर्भाव कर देना युक्त नहीं है। ग्रन्थकार कहते है कि या तो न कहना। क्योंकि अहिंसाव्रत की भावनाओं में आलोकितपानभोजन का. कंठोक्त निरूपण है । सूर्य का आलोक होता है अतः सूर्य के प्रकाश में ही खाने पीने का जब विधान किया गया । है तो रात्रि के खान पान का त्याग अनायास प्राप्त हो जाता है। फिर भी कोई यों चोद्य उठावे कि