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________________ ५४४ श्लोक-वार्तिक हिंसादयो निर्देक्ष्यमाणलक्षणाः, विरमणं विरतिः व्रतमभिसंधिकृतो नियमः। हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्य इत्यपादाननिर्देशः । ध्रुवत्वाभावात्तदनुपपत्तिरिति चेन्न, बुद्धयपायाद्धृवत्वविवक्षोपपत्तेः। हिंसा, अनृत, आदि के लक्षण आगे सूत्रों द्वारा निर्दिष्ट करा दिये जावेंगे। अर्थात् “प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा" "असदभिधानमनृतं” इत्यादि सूत्रों द्वारा हिंसा आदि पाँच पापों का लक्षण कह दिया जावेगा। विरमण यानी परित्याग करना या विराम ले लेना ही विरति है । बुद्धिपूर्वक अभिप्राय को अभिसन्धि कहते हैं। अभिसन्धि करके किया गया नियम व्रत माना जाता है। अतः किसी दरिद्र का हाथी पर चढ़ने का त्याग या रोगी के लंघन में हुआ उपवास व्रत नहीं कहा जा सकता है। "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यः” यह बहुवचनांत पंचमी विभक्ति के रूप का कथन है । अपादान में पंचमी विभक्ति होती है । विरति की अपेक्षा यहाँ पंचमी विभक्ति से व्यक्त हुआ अपादान का निर्देश है "ध्रुवमपायेऽपादानं” निश्चल पदार्थ से किसी का पृथग्भाव हो जाने पर वह स्थिरीभूत पदार्थ अपादान कहा जाता है। यहाँ कोई आक्षेप करता है कि ग्राम से देवदत्त आता है, वृक्ष से पत्ता गिरता है। यहां ग्राम या वृक्ष का ध्रुपपना प्रसिद्ध है किंतु प्रकरण में हिंसा आदि परिणाम तो ध्रुव नहीं हैं अतः अपादान नहीं हो सकेंगे। यदि हिंसा आदि परिणाम वाले आत्मा को हिंसा आदि पद से कहा जायगा एतावता आत्मा का ध्रुवपना तो बन जायगा किंतु उस नित्य आत्मा से विरति होना असंभव है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि बुद्धिकृत अपाय से ध्रुवपने की विवक्षा बन रही है। अर्थात् अस्थिर पदार्थ को भी बुद्धि में स्थिर मान कर उससे निवृत्ति होना बना लिया जाता है। धर्माविरमति, धावतोऽश्वात्पतति, आदि स्थलों में यही उपाय करना पड़ता है । व्याकरण के लक्षणों का पुनः परिष्कार कर नैयायिकों द्वारा पुनः अव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोषों को टालते हुये निर्बाध लक्षण बनाये जाते हैं। यों व्रत का लक्षण निर्दोष कर दिया गया है। ___ अहिंसाप्रधानत्वादादौ तद्वचनं, इतरेषां तत्परिपालनार्थत्वात् । विषयभेदाद्विरतिभेदे तबहुत्वप्रसंग इति चेन्न वा, तद्विषयविरमणसामान्योपादात् । तदेव हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतमिति युक्तोऽयं सूत्रनिर्देशः । सम्पूर्ण व्रतों में अहिंसा की प्रधानता है अतः सबके आदि में उस अहिंसा का कथन किया गया है। क्योंकि खेत की रक्षा करने वाले घेरे के समान अन्य सत्य, अचौर्य आदि व्रतों का उस अहिंसा का परिपालन करते रहना ही प्रयोजन है। विरति शब्द को हिंसा से, झूठ से, चोरी से, अब्रह्म से, परिग्रह से यों प्रत्येक के साथ जोड़ दिया जाता है। यहाँ किसी की शंका है कि पंचम्यन्त विषयों का भेद हो जाने से उनके त्याग स्वरूप विरति का भी भेद हो जानेपर उस विरति के बहुवचन 'विरतयः' हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है। यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि यह दोष नहीं लगता है क्योंकि उन हिंसा आदि विषयों से विराम हो जाना इस सामान्य अपेक्षा से एकवचन विरति शब्द का ग्रहण किया गया है । जैसे कि गुड़, तिल, चावलों का पाक हो जाना । यो सामान्य की विवक्षा कर लेने पर पाक शब्द एकवचन कह दिया जाता है । तिस कारण इस प्रकार हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह इन्हों से विरति हो जाना व्रत है। इस प्रकार सूत्रकार महाराज का यह सूत्र निर्देश करना समुचित ही है। .. नन्विह हिंसादिनिवृत्तिवचनं निरर्थकं संवरान्तर्भावात, धर्माभ्यन्तरत्वात् तत्प्रपंचार्थ उपन्यास इति चेन्न, तत्रैव करणात् । संवरप्रपंचो हि स संवराध्याये कर्तव्यो न पुनरिहास्रवाध्या
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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