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________________ छठा-अध्याय ५४१ सम्यक्त्व, अनुपम सुख, केवलज्ञान आदि गुणों में तन्मय होकर सर्वदा बिराजते हैं। "नमोऽस्तु तेभ्यः परमपुरुषार्थशालिभ्यः" जो कोई राजा या सेठ या भूमिपति अपनी सम्पत्ति को प्रतिष्ठा पूर्वक रखाये रहे, घटने नहीं देवे, ऋण नहीं बढ़ने देवे, यह भी उसका पूरा पुरुषार्थ है । सद्गृहस्थ अपनी प्रतिष्ठा, कुल गौरव, सम्पत्तिशालिता को बढ़ा लेवे यह तो महान् पुरुषार्थ हे ही किन्तु उतनी की उतनी ही सम्पत्ति, मानमर्यादा के साथ प्रतिष्ठा पूर्वक जीवन को तभी रक्षित रख सकता है जब तक कि तत्पर होकर उसके लिये सर्वदा प्रयत्न करता रहेगा क्षणमात्र भी आलस आ जाने पर दुष्ट, चोर, व्यभिचारी, अकारण शत्र, उसकी प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला देंगे। पुनः कर्मबंध नहीं होने से मुक्त जीव आवद्ध नहीं होते हैं इसमें प्रधान कारण सिद्धपरमेष्ठी भगवान् का स्वरूप में सर्वदा निमग्न बने रहने का पुरुषार्थ ही है । अकम्प अडिग्ग मुनि दृढ़ आसन लगा कर जब इधर-उधर विचलित नहीं होते हैं इसका कारण उनका स्वांगों में ही दृढ़ बने रहने का या एकान में मन को लगाये रहने का पुरुषार्थ है। मोटर दुर्घटना के अवसर पर ऊर्ध्वश्वास लेनेका पुरुषार्थ कर रहे मनुप्य को अल्प चोट लगती है। शरीर को ढीला छोड़ देने वाले को अधिक आघात पहुंचता है । बलवान मल्ल दूसरे प्रतिमल्ल से नहीं गिराया जाता है। इसका निदान भी उसका स्व शरीर दृढ़ता को सर्वदा बनाये रखने का पुरुषार्थ किये जाना ही है । एक निमेष मात्र भी शरीर को ढीला कर देने पर प्रतिमल्ल झट उसको गिरा देता है। प्रतिमल्ल को कुछ दया भी आजाय किन्तु पौद्गलिक कर्मों को दया या लज्जा नहीं आती है। पुरुषार्थी जीव ही कर्म के आघातों से बचे रह सकते हैं। मोक्ष पुरुषार्थ में मोक्ष के साधन, दीक्षा, संयम, तपध्यान, पकड़े जाते हैं, वस्तुतः विचारा जाय तो उत्तम क्षमा, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अनंत वीर्य, चारित्र, मार्दव, आकिंचन्य इन परमब्रह्म स्वरूपों के साथ तदात्मक हो रहा मोक्ष तो सर्वोत्तम पुरुषार्थ है जिसकी उपमा ही नहीं मिलती हैं। यद्यपि पुद्गल में अनंत बल है और आत्मा भी अनंत बलशाली है। कर्मों का तीव्र उदय होने पर संसारी आत्मा का पुरुषार्थ व्यर्थ ( फेल ) हो जाता है अतः कर्म को भी प्रेरक कारण माना जा सकता है । दीपक जैसे मनुष्य को अँधेरे में प्रकाश करता हुआ ले जाता है और दीपक को मनुष्य हाथ में ले जाता है। अथवा श्री धनंजय महाराज के शब्दों में "कर्मस्थितिं जन्तुरनेकभूमि नयत्यमुं सा च परस्परस्य । त्वं नेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ जिनेन्द्र नौनाविकयोरिवाख्यः" नाविक को नाव और नौका को नाविक ले जाते हैं यों दीपक या नाव के समान कर्म भले ही कह दिये जाँय किन्तु पुरुषार्थ जीव का ही कहा जायगा । इस प्रकरण की इतने ही कथन से पर्याप्ति होय इस अवसर पर यह कहना है कि खाने, पीने, लीलने, वायु बैंचने आदिमें यह जीव जैसा पुरुषार्थ करता है उसी प्रकार कर्मों को खींचने के लिये योग नाम का पुरुषार्थ जीव को करना पड़ता है, जो कि ग्रन्थों में योग या आस्रव शब्द से कहा गया है। आत्मा के साव कर्मों के बंध होजाने का कारण आत्मा का ही परिणाम हो सकता है । तभी तो कर्मों से आकाश नहीं बंधता है काय, वचन, मन के उपयोगी वर्गणाओं का अवलंब लेकर हुआ आत्म प्रदेश परिस्पन्द योग कह दिया है। सिद्धों के योग नहीं हैं। इसके आगे योग द्वारा हुये पण्य के आस्रव और पाप के अनुमान प्रमाण करके साधा है, योग के अपेक्षाकृत संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद समझाये गये हैं। कषाय शब्द की निरुक्ति करते हुये साम्परायिक आस्रव की सिद्धि में अनुमान प्रमाण दिया गया है। पद्म के मध्य में प्राप्त हुआ भौंरा का यह दृष्टान्त बड़ा अच्छा जच गया है। साम्परायिक आस्रव के भेद करते हुए तीव्र भाव आदि की युक्तियों से सिद्धि की है । संरंभ आदिका अच्छा विचार है, पर शब्द की सार्थकता दिखलाते हुये सामान्य रूप से साम्परायिक आस्रव का निरूपण कर प्रथमाह्निक समाप्त किया गया है। अनन्तर द्वितीय आह्निक में अकलंक देव महाराज के अनुसार प्रदोष आदि का विचार करते हुये बड़े
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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